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राजनीति के सिर्फ बाज भी यहां पर पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं, फिर बाकी पक्षी अथवा विपक्षी की क्या मजाल, यहां पर भाड़ को फोड़ने की जुर्रत करे। बाज को इसलिए सुरक्षित माना गया है क्योंकि वह दूर से ही जोखिम को ताड़ने और उससे बचने के गुर जानता है। चाहे वह ताड़ के लंबे पेड़ से भी सौ गुना ऊंचाई पर हो। ‘बाजपना’ इस मायने में ‘गुण्डाकारी’ से श्रेष्ठ माना गया है। खैर ... बाज को गुण्डों से डर नहीं लगता और न उन्हें लगता है जो स्वयं गुण्डाकारी के सिद्ध होते हैं। गुण्डों के लिए यह अनिवार्यता अब नहीं कि वह शक्ल-ओ-सूरत से भी गुण्डे नजर आएं, अब सीरत इस मायने में काफी प्रभावशाली हो गई है।
कहा भी गया है कि ‘क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी सीरत छिपी रहे’। मिलिए मत परंतु गुण्डाकारी के सीरतधारकों से आप बचे रहें, यही बेहतर रहेगा।
प्रसाद के गुण्डे ‘नन्हकू’ जैसी बड़ी, तनी और घनी रौबीली मूंछों, गुस्सा भरी हुई लाल आंख और फड़कती हुई नाक की जरूरत और चेहरे पर चाकू के कटे के पुराने निशान हों- सिर पर बाल हों, फिर सपाट हो तो भी गुण्डापन निखरकर चेहरे पर दिखलाई देता है लेकिन राजनीति में गुण्डों को इस तरह के मेकअप करने की कतई जरूरत नहीं पड़ती है। गुण्डे के चेहरे पर यह सब प्रेम भाव न भी हों तो भी गुण्डे को कभी किसी कंपनी के आई कार्ड की जरूरत नहीं पड़ती है, कभी आपने ऐसा किस्सा सुना हो तो बतलाइये कि किसी गुण्डे ने वारदात करने से पहले अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए अपना आई कार्ड पेश किया हो। फिर भी पीडि़त का चेहरा लाल सुर्ख टमाटर हो जाता है जो कि डरे हुए लाल खून के शरीर में तीव्र संचरण के कारण जन्म लेता है।
यह तो आप भी मानेंगे कि भला कोई शरीफ आदमी, किसी को भी गुण्डा क्यों कहेगा। शरीफ आदमी की तो इतनी भी हैसियत नहीं होती है और न उसमें हिम्मत होती है कि वह चोर को चोर कहने का जोखिम चोरी कर सके जबकि चोर के ऐसे तेज पांव होते हैं कि जरा सी आहट पर ही दौड़ अथवा चार – छह मंजिल से कूद लेते हैं। चोर और डर कर भागते पैर के भूत नजर नहीं आते, यह लोक में प्रचलित है जबकि भूत जो खुद ही दिखलाई नहीं देता है तो उसके पैर इत्यादि भला कैसे दिखाई देंगे, यह भी विचारणीय है। चोर जब कूदते हैं तो उनके पैर टूटने की घटनाएं सुनी जाती हैं, इससे यह अनुमान लगाया गया है कि उनके पांव काफी तेज लेकिन कमजोर होते हैं इसलिए टूटते भी रहते हैं।
डकैतों और गुण्डों के पैर अब घोड़े भी नहीं होते और वे अब कारों और मोटर साईकिलों में गतिमान रहकर अपने कारनामों को अंजाम देते हैं। उनके हाथों में हथियार होते हैं, न भी हों तो उनके हाथ ही हथियार होते हैं। वे जहां जहां से गुजर जाते हैं, वहां से शरीफ आदमी उनके आने से पहले गुजर चुके होते हैं। अगर कोई शरीफ गलती से बाकी बचा रह गया हो तो उनके आने की आहट मात्र से पतली गली से सरक लेता है।
अब इतना तो तय है कि गुण्डों के सामने या तो गुण्डा या खांटी राजनीतिज्ञ ही टिक सकता है और उससे पंगा ले सका है। पंगा लेने की वजह हो, न हो – चुनाव हों, न हों। चुनाव कभी भी आ सकते हैं। कितनी ही शब्दों की ठोकरें देश-प्रदेश के बूढ़े सियासतदान मारते रहते हैं। वह पहले से ही बने हुए अपने माहौल में कमी नहीं आने देना चाहते हैं। एक बार जो साम्राज्य स्थापित हो चुका है, उसे छोड़ने का रिस्क भला कौन ले, इसलिए वे भी अपनी बुद्धि की शौर्यता का उपयोग करते रहते हैं।
गुण्डों से डरने का ठेका बिना ठेके के, शरीफ आदमी ने ले रखा है – वह डरता है, डर डरकर पढ़ता गीता है, पपीता खा खाकर अपने पेट की बीमारियों को सीता है और वोट देने के लिए जीता है। उसका बड़ी ख्वाहिशों से पाला गया वोट, सम्मोहित कर हथिया लिया जाता है। हथियाने वाले को आप गुण्डा मत कहिएगा, वे आपस में खुद ही अपनी पहचान जाहिर कर रहे हैं, इतने समझदार-शरीफ तो आप हैं ही न ?
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जी हैं तो :)
ReplyDeleteसुंदर ।