यूँ तो यह विषय अब बहुत पुराना हो चुका है और बहुत लोग इस बारे में बहुत कुछ, एवं बहुत अच्छा-अच्छा लिख चुके है। कुछ ऐसा जो मन को छू जाये। मगर मैंने अपना यह लेख उन कई लोग से तुलना करने के लिए नहीं लिखा, कि मेरा उन से बेहतर है, या नहीं। बल्कि आज मैंने भी अपने मन में उठती हुई कुछ तरंगों को शब्द रूप देना का प्रयत्न किया है। मन के बारे में क्या कहूँ, कहाँ से शुरुआत करूँ इस एक शब्द के विस्तार की, जो कि एक भावनाओं का समुंदर है। या फिर यूँ कहिए कि भावनाओं का मकड़ जाल है। जिसमें हम चाहे अनचाहे पड़ ही जाते है और हर पल इस समुद्र रूपी मन में भावना रूपी कोई न कोई लहर उठती ही रहती है। जो हर पल कुछ न कुछ सोचने को मजबूर करती है। जैसे "शिखा जी" ने अपने ब्लॉग में भी लिख रखा है अंतर मन से उठती हुई भावनाओं की तरंगें" जो कभी सुखद होती हैं, तो कभी दुखद भी। वो कहते हैं,
“मन के हारे हार है,
मन के जीते जीत”
कितनी गहरी बात है। देखने और पढ़ने में भले ही इस बात का अर्थ बहुत ही साधारण प्रतीत होता हो, कि यदि आपका मन अच्छा है, तो आपको अपने आस-पास सब कुछ अच्छा लगता है और आप हर परिस्थिति पर विजय पाने में सफल होने की क्षमता रखते हो। कहने का मतलब यह कि जब आप का मन खुश होता है, तब आपकी सोच सकारात्मक होती है और जब आपका मन दुःखी होता है, निराश होता है, तब आपकी सोच नकारात्मक हो जाती है। मगर इन दो पंक्तियों में जीवन का सार छुपा है, जो अपने आप में एक इंसान के सम्पूर्ण जीवन को दर्शाता है कि एक इंसान किस तरह अपने मनोभावों के साथ जीता है। क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि इंसान बना ही भावनाओं से है, जो उसे अन्य जीवों से अलग करती हैं। जिस इंसान के अंदर भावनायें नहीं होती वो मेरे हिसाब से तो इंसान कहलाने लायक ही नहीं है।
मुझे तो आज तक अपने जीवन में, अब तक ऐसा कोई इंसान नहीं मिला जिसके अंदर भावनायें न हो। हाँ कुछ लोग खुद को जानबूझ कर कठोर दिखाने का प्रयत्न जरूर करते हैं, किन्तु वास्तव में वह लोग खुद अंदर से बहुत ही साफ दिल और नरम स्वभाव के होते है। बिलकुल नारियल की तरह बाहर से सख़्त और अंदर से नरम।J कभी सोचो तो ऐसा लगता है जैसे मन और भावनायें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। फिर कभी यूं भी होता है कि हम अपने ही मन को समझ पाने में असमर्थ हो जाते हैं। हम खुद ही नहीं समझ पाते कि हम क्या चाहते हैं। जब कभी हम बहुत खुश होते हैं, तो लगता है जैसे हम ने सब कुछ पा लिया हो। अब और कुछ पाने की चाह नहीं और उस ख़ुशी में भी हमारी आँखें छलक जाती है और दिल यह गीत गुनगुनाने लगता है।
"आज फिर जीने की तमन्ना है
आज फिर मरने का इरादा है"
इस गीत में भी तो कुछ ऐसे ही भावों को व्यक्त किया गया है न कई बार हमारा मन बहुत छोटी-छोटी बातों में,चीजों में, सुकून ढूंढ लेता है। तो कई बार सब कुछ होते हुए भी कहीं सुकून नहीं मिल पाता। कई बार आपने भी देखा और महसूस किया होगा कि सुकून की तलाश में तनहाई कारगर साबित होती है। जब अकेले में हमको खुद से बातें करने और खुद को समझने का मौक़ा मिलता है। आपने आस-पास हो रही गतिविधियों पर गौर करने का मौक़ा मिलता है, कि हमारे लिए क्या सही है, क्या गलत है। कभी-कभी सारी परेशानियों से भाग कर मन करता है, किसी ऐसी जगह चले जाने को जहां शांत माहौल हो। अगर कुछ शोर हो या आवाज हो तो केवल प्राकृतिक हो जैसे समुंदर का किनारा या फिर किसी झील के किनारे किसी सुनसान जगह पर आप बैठे हो ठंडी बहती हुए हवा और पक्षीयों का करलव हो, इसके अतिरिक्त और कुछ न हो। जब उस एकांत माहौल में जहां दूर-दूर तक नज़र डालने पर भी सिवाय शांति के और कुछ महसूस ना हो तो मन को उस वक्त जो सुकून महसूस होता है, उस एहसास, उस सुकून को शब्दों में बयां कर पाना मेरे लिए संभव नहीं।
एक ऐसी शांति का एहसास जो समुद्र की लहरों के शोर से भी भंग नहीं होती, बल्कि मन को बहुत सुकून देती है और आपको एक अलग ही दुनिया में दूर कहीं ले जाती है। जहाँ सिर्फ आप इस रंज़ ओ ग़म कि दुनिया से दूर केवल आपकी तनहाई आपके साथ होती है। मन एकदम शांत होता है, किसी प्रकार की कोई परेशानी आप पर हावी नहीं होती। तब जब आप अपने अंतर मन में उठते सभी सवालों का हल पा लेते हो, अर्थात किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में या किसी निर्णय को लेने में कामयाब हो जाते हो।उस वक्त और शांत वातावरण में जो मन: स्थिति होती है उसकी तलाश में तो शायद लोगों का सारा जीवन बीत जाता हैं। मैंने कहीं पढ़ा था कि "भगवान बुद्ध" ने कहा था, शायद, मुझे ठीक से याद तो नहीं मगर, ऐसा कुछ कि इंसान के मन में उठते सभी प्रश्नों का उत्तर स्वयं उसके मन में ही छुपा होता है। जरूरत होती है, तो केवल अपने आप से उस प्रश्न को ईमानदारी से और ठंडे दिमाग एवं शांत मन से पूछने की, जो साधारण तौर पर हम कर नहीं पाते और नतीजा सारी उम्र भटकते रहते हैं, उस शांति रूपी संतुष्टि की तलाश में जो साधारण तौर पर इंसान को कभी नहीं मिलती। जिस प्रकार एक मृग अपने ही अंदर छुपी कस्तूरी की खोज में भटकता रहता है, ठीक उसी प्रकार इंसान भी शांति और संतुष्टि की खोज में मृगतृष्णा कि भांति ही भटकता रहता है। अतः इन मन में उठती हुई तरंगों कि बातों को, इस मकड़ जाल को, जिसमें फंस जाने के बाद शायद कभी बातों का अंत ही न हो, मैं यहीं इन कुछ मशहूर शेरों के साथ यही विराम देती हूँ।
“कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ,
कभी ज़मी तो कभी आसमान नहीं मिलता”
या फिर
इंसान की ख्वाइश की कोई इंतहा नहीं
दो गज़ ज़मीन चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद।
पल्लवी सक्सेना