चिथरों में लिपटी
दिखती है हर रोज 'वो'
कि भीगोती है सर्द हवाएँ
हर रात उसे
नयन कोर पर
'बेबसी' मुस्कुराती है
चेहरे की मुस्कराहट
बेबसी छुपा जाती है
छिड़ी है 'जद्दोजहद'
खुद से लड़ने की
समेटे खुद को खुद में
मुक्त आसमां के नीचे
धरा पर बिखरने की
बादल झूमे
सावन के उर में
पर सूखी हर तृष्णा
दिल के अंदर
'अकाल' पोषित हो रहा
प्यासा है वो 'भीत' समंदर
'वो' चीखती, चिल्लाती है
हर रोज कई बार
पर सुनता कौन है
देख लो 'तमाशा' यह
यहाँ हर कोई 'मौन' है
'वो' चीखती, चिल्लाती है
ReplyDeleteहर रोज कई बार
पर सुनता कौन है
देख लो 'तमाशा' यह
यहाँ हर कोई 'मौन' है
मन को छूते शब्द ... भावमय करती प्रस्तुति ..आभार
marmik rachna ...duniyan ka katu saty yahi hai
ReplyDeleteसंवेदना को जगाती दिल को छूने वाली रचना ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...दिल को छू गयी रचना
ReplyDeleteअनु
सम्बेद्नाओं से ओत प्रोत.... एक उम्दा रचना....!!
ReplyDeleteबेबसी का शोर बहुत गंभीर है.
ReplyDeleteसुंदर संवेदनशील कविता.
दिल के अंदर
ReplyDelete'अकाल' पोषित हो रहा
प्यासा है वो 'भीत' समंदर
बहुत सुन्दर !
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण |
ReplyDeleteकभी मेरे ब्लॉग पर भी आइये |
आशा
मर्मस्पर्शी रचना
ReplyDelete:-)