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(राजा रवि वर्मा की पेंटिंग मोहिनी झूला झूलते हुए )

सुबह-सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई. उनींदी आखों से दरवाजा खोला तो हैरान रह गई. उम्मीदों भरी टोकरी में यादों के सिलसिले…हरियाली में डूबी पूरी कायनात, तन ही नहीं मन को भी भिगोती बूंदों की सौगात लिये जो शख्स खड़ा था उसका चेहरा जाना-पहचाना तो बिलकुल भी नहीं लगा. लेकिन ये जो भी था, न जाने क्यों मुझे अच्छा लग रहा था। 

मैंने पूछा तुम कौन? 

तभी बूंदों का सैलाब मुझे भिगो गया। जवाब मिल चुका था. ये सावन था. मेरी जिंदगी में ऐसा सावन पहले कभी नहीं आया था। ऐसा भी नहीं कि सावन के झूलों का मुझे अहसास न हो, ऐसा भी नहीं कि बूंदों ने मुझे पहले कभी भिगोया न हो. न ही ऐसा था कि मुझे सारे जहां में ऐसी हरियाली कभी न दिखी हो. अब तक यह सब आंखों से देखा था. बूंदों ने तन को ही छुआ था. लेकिन इस बार यह मौसम एक खुशनुमा अहसास बनकर भीतर तक दाखिल हो गया है। 

कैलेण्डर बदलने से महीने बदलते हैं मौसम नहीं बदलते. मौसम अपनी मर्जी से बदलते हैं. ये मौसम हमारी जिंदगी में भी बदलें इसके लिए हमें अपने मन की दुनिया के उन दरवाजों को खोलना होगा, जो कबसे बंद पड़े हैं. चारों ओर देखती हूं तो सावन एक उत्सव के रूप में लोगों की जिंदगी में छाया हुआ है. कहीं तीज तो कहीं राखी की तैयारी. कहीं झूले तो कहीं रेन डांस. रिमझिम बूंदों के बीच गर्मागरम पकौडिय़ां और चाय का मजा. दोस्तों केसाथ पुरानी जींस और गिटार…गाते हुए कॉलेज के दिन याद करना, या सचमुच कॉलेज की कैंटीन में टेबल थपथपाकर कुछ भी गुनगुनाना जारी है. अगर कम शब्दों में कहें तो सावन को मुस्कुराहटों का मौसम कहा जा सकता है। 

मेट्रो सिटीज में सावन उस तरह तो बिलकुल नहीं आता, जैसा गांव या कस्बों में आता है. या अब तो शायद गांवों में भी वैसा सावन नहीं आता. अब कोई लड़की नहीं गाती कि अम्मा मेरे बाबुल को भेजो री….कि सावन आया….सावन. अब मायका उतना भी दुर्लभ नहीं रहा कि वहां जाने के लिए सावन का इंतजार करना पड़े या बाबुल, भैया के आने का इंतजार करना पड़े. लड़कियां खुद बगैर बाबुल या भैया के संदेश के कार या स्कूटी ड्राइव करके मायके जा धमकती हैं. यह भी जरूरी नहीं कि वे भैया के तोहफों का इंतजार करें, अब वे भैया के लिए तोहफे लेकर भी जाती हैं. यानी अब मांगना नहीं, बांटना है, तोहफे, प्यार और एक-दूसरे के साथ होने का अहसास. त्योहारों में एक साझापन आ चुका है। पहले मुझे हमेशा लगता था कि मौसम सबके लिए एक से क्यों नहीं होते. सबकी जिंदगी में इनका असर अलग क्यों होता है. अब समझ में आता है कुदरत भेद नहीं करती, हम खुद करते हैं. हम अपने आपको आवरणों में कैद करके रखते हैं. मुक्त नहीं करते. यही कारण है कि खुशियां, मौसम, सुख हमारे आसपास होकर भी हमसे दूर ही रह जाते हैं. हम उनकी ओर हाथ बढ़ाना ही भूल जाते हैं.मेरी एक दोस्त है. इंडिया छोड़े उसे आठ बरस हो गये। 

अमेरिका में रहते हुए उसे इंडिया के सारे मौसम, सारी तिथियां, सारी पूर्णमासियां याद रहती हैं. मुझे याद है पिछले बरस की उसकी वो बेसब्र सी आवाज, जब उसने फोन पर कहा था, यार, यहां तो बारिश ही नहीं हो रही है. वहां का सावन कैसा है? वहां तो खूब बारिश हो रही होगी ना? मैं सच कहती हूं उसके फोन करने से पहले तक मुझे सावन का ध्यान ही नहीं था। आज मैं दावे से कह सकती हूं कि उसकी जिंदगी में सावन बहुत पहले आ चुका होगा। 

अगर आपकी जिंदगी में कोई मौसम एक बार दाखिल हो जाए तो वह वापस नहीं जा सकता. फिर आप दुनिया के चाहे जिस कोने में हों. हमें इन मौसमों को अपनी जिंदगी में आने देने का हुनर सीखना होगा. उम्मीद करती हूं हम सबकी जिंदगी में इस बार जो सावन आये उसकी महक, उसकी हरियाली, उसका मन को भिगो देन वाला स्पर्श हम सब महसूस कर सकें, जिंदगी की तमाम आपाधापियों के बावजूद. यह सावन किसी की याद में नहीं, साथ में बीते और ता-उम्र इसकी खुशबू बरकरार रहे…..

प्रतिभा कटियार 
http://pratibhakatiyar.wordpress.com/



5 comments:

  1. ागर मौसम एक से हों तो ज़िन्दगी का क्या मज़ा। अच्छी पोस्ट।

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  2. सुन्दर पोस्ट..

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  3. बहुत सुन्दर...........
    प्रतिभा जी को पढ़ना एक अनुभव है...

    सादर
    अनु

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  4. सावन की बूँदें महसूस करने वाली सुंदर पोस्ट...

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  5. समय कम है सो पूरी तरह पढ़ने के लिए दुबारा आउंगा......

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