आज कोई साथ नही है गुमसुम सी बैठी हूँ अकेले ..
न कोई सुनने वाला है न कोई सुनाने वाला ..
साथ है भी तो बस मैं और मेरी बचपन कि वो यादें ..
तभी कुछ याद आया एकाएक ..
बचपन में अक्सर बादलों के टुकडें जब गुजरा करते थे
मैं पूछती माँ से - माँ ! ये क्या है ..?
माँ कहती - कहाँ..?
कुछ भी तो नही ..
फिर मैं अपने में ही खो जाती...
और हर एक बादल के टुकडें में कोई न कोई आकृति  उभरती रहती ...
कभी लगता कोई गुमसुम सा अपनी माँ के सायें में बैठा है ...
फिर कभी लगता
कोई बैठा है शज़र के तले किसी के इंतज़ार में ..
बस इतना ही नहीं
और ना जाने क्या क्या
तभी शैतान सी वो उभरी आकृति
आकर डरा जाती ...
मैं छुप जाती माँ के आँचल में ..
फिर कुछ देर बाद चुपके से
अपना सर बाहर निकालकर देखती ....
और वही सिलसिला शुरू हो जाता
जहाँ से रुक जाती थी मैं ...
इतना ही काफी नही था ....
जब ढलती साँझ ....
और ढलते ढलते घनी रात होती ....
माँ का पल्लू थामे माँ के पीछे पीछे चलती रहती ...
बस टकटकी लगे उस घने अन्धेरे में ...
यूँही लगता था कोई झांकता है मुझे उस पार से....
या लगता था अभी कोई आकर बैठ गया है पेड़ पर ..
मैं माँ से फिर कहती - माँ!  उधर देखो...
कोई पेड़ पर आकर बैठा है ...
माँ हंसती मेरे सवाल पर
और कहती कोई नही है
ये पेड़ है हमारे दोस्त
जो रात को इंसान की तरह
हमारे आसपास रहते है ..
कल्पनाओं की वो उम्र
और उम्र का ये पड़ाव
बहुत कुछ बदल गया है
अब ना ही वो बचपन रहा
और ना वो मन के अनबुझे सवाल
बचा है तो बस उन सवालों से घिरा
एक कोना मेरे बचपन की यादों का .........



विधू यादव
अर्जुनगंज, लखनऊ

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