बूंद ओस की हो
या नमी हो मिट्टी की
आँखें अपनी मनःस्थिति जीती हैं ....
रश्मि प्रभा
धीरेन्द्र भदौरिया.....
रश्मि प्रभा
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एक बूँद ओस की......
सुबह सुबह पत्तों पर दूर से,
कुछ चमकते देखा-...
लगा जैसे
पत्तों में कोई मोती उगा,
कौतुहलवश पास गया
मुझे लगा
शायद ये पत्तों के आँसू हैं !
समझ के मेरी बातों को
वो मुझसे यूँ कहने लगी,
तुम्हें भ्रम हुआ है
न मै आँसू हूँ, न मै मोती
प्रकृति द्वारा बनाई गयी
मै तो एक बूँद हूँ ओस की,
आसमान से चलकर
आज ही ज़मीं पर उतरी हूँ
कुछ पल मुझे जीना है-
कुछ पल में मिट जाऊगी,
लेकिन कुछ पल के लिए ही सही
अपनी पहचान दे जाऊगी,
मै एक छोटी सी बूंद हूँ
मेरा अपना अस्तित्व है
तुम तो इंसान हो-
तुम कहो
तुम्हारा जीवन में क्या महत्व है........
धीरेन्द्र भदौरिया.....
sundar kavita...
ReplyDeleteसशक्त प्रस्तुति।
ReplyDeleteजीवन दर्शन सिखाने के लिए एक बूँद ओस ही काफी है...
ReplyDeletewah......wakayee boond ki bhi ahmiyat hoti hai.
ReplyDeleteलेकिन कुछ पल के लिए ही सही
ReplyDeleteअपनी पहचान दे जाऊगी,
मै एक छोटी सी बूंद हूँ
मेरा अपना अस्तित्व है
तुम तो इंसान हो-
तुम कहो
तुम्हारा जीवन में क्या महत्व है........
प्रकृति के कण कण में संदेश है .. समझा जाए तो .. उत्तम रचना !!
मै एक छोटी सी बूंद हूँ
ReplyDeleteमेरा अपना अस्तित्व है
तुम तो इंसान हो-
तुम कहो
तुम्हारा जीवन में क्या महत्व है........
प्रेरित करती बूँद!
सुन्दर प्रस्तुति!
बहुत सुन्दर रचना ,आभार.
ReplyDeletewaha bahut khub
ReplyDeletetum kaho
ReplyDeletetumhara jeewan me kya mahatv hai...
main apne bheetar jhank kar es prashan ka uttar dund rahi hoon..
achchhi kavita..
vaah...aos ka bahut sundar vishleshan.jeevan bhi to oss ki tarah hai.
ReplyDeleteसशक्त रचना...
ReplyDeleteधीरेन्द्र जी को बधाई...
आभार वटवृक्ष...
बहुत अच्छी प्रस्तुति है.
ReplyDeleteकोमलता और सहजता का अहसास कराती हुई.
वटवृक्ष को 'रश्मि' पूर्ण कर दिया है आपने.
बेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteप्राकृतिक उपालम्भों में स्वयम की तलाश
sundar bhaav os kee boondein bahut kuchh sikhaatee hein
ReplyDeleteओस
हरे पत्तों पर ओस की बूंदें
नन्हे मोतियों सी,
चमक लेकर लुभाती हैं,
सूरज की गर्मी से
भाप बन उड़ जाती हैं
आना और जाना,
"निरंतर" प्रक्रिया है
जब तक रहना है
ओस की बूंदों सा चमकना है,
हमें भी एक दिन उड़ जाना है,
हमें भी एक दिन उड़ जाना है
08-08-2010
ओस की बूँद ने इंसानी जीवन की व्याख्या कर दी !
ReplyDeleteहर इंसान अपने अपने हिस्से का काम कर ही जाता है धीरेन्द्र जी, चाहे सृजानात्मक हो या...
ReplyDeleteरचना बहुत अच्छी है...बधाई.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबूँद का अस्तित्व ही क्या है....उसे जितना ही पोर पर सहेजना चाहो अंततः वह पोर से ढुलक हथेलियों को चीरती हुई ज़मीन पर चू पड़ती ...मैले हाथों पर एक लकीर बन ...उसके अस्तित्व का अवशेष....
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बूँद का अस्तित्व ही क्या है....उसे जितना ही पोर पर सहेजना चाहो अंततः वह पोर से ढुलक हथेलियों को चीरती हुई ज़मीन पर चू पड़ती ...मैले हाथों पर एक लकीर बन ...उसके अस्तित्व का अवशेष....
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बूँद का अस्तित्व ही क्या है....उसे जितना ही पोर पर सहेजना चाहो अंततः वह पोर से ढुलक हथेलियों को चीरती हुई ज़मीन पर चू पड़ती ...मैले हाथों पर एक लकीर बन ...उसके अस्तित्व का अवशेष....
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बूँद का अस्तित्व ही क्या है....उसे जितना ही पोर पर सहेजना चाहो अंततः वह पोर से ढुलक हथेलियों को चीरती हुई ज़मीन पर चू पड़ती ...मैले हाथों पर एक लकीर बन ...उसके अस्तित्व का अवशेष....
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