एक संदूक ....
रश्मि प्रभा
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दर्पण साह समय:
कितने सारे रिश्ते
कितनी खिलखिलाहट
कितनी चाहतें ........ माँ ने कितने ख्वाब संजोकर दिए थे
पता था उसे ... यह बड़े काम की चीज होती है !
रश्मि प्रभा
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संदूक
आज...
फ़िर,
....
....
उस,
कोने में पड़े,
धूल लगे 'संदूक' को,
हाथों से झाड़ा...
धूल...
...आंखों में चुभ गई .
संदूक का,
कोई 'नाम' नहीं होता.
पर,
इस संदूक में,
एक खुरचा सा 'नाम' था .
....
....
सफ़ेद पेंट से लिखा .
तुम्हारा था?
या मेरा?
पढ़ा नही जाता है अब .
खोल के देखा उसे,
ऊपर से ही,
बेतरतीब पड़ी थी...
'ज़िन्दगी'।
मुझे याद है,
माँ ने,
जन्म दिन में,
'उपहार' में दी थी।
पहली बार देखी थी,
तो लगता था,
कितनी छोटी है !
पर,
आज भी ,
जब पहन के देखता हूँ,
बड़ी ही लगती है,
शायद...
...कभी फिट आ जाए।
नीचे उसके,
तह करके,
सलीके से,
रखा हुआ है...
...'बचपन' ।
उसकी जेबों में देखा,
अब भी,
तितलियों के पंख,
कागज़ के रंग,
कुछ कंचे ,
उलझा हुआ मंझा,
और...
....
....
और न जाने क्या क्या ?
कपड़े,
छोटे होते थे बचपन में,
....
....
....जेब बड़ी.
कितने ज़तन से,
...मेरे पिताजी ने,
मुझे,
ये
'इमानदारी',
सी के दी थी ।
बिल्कुल मेरे नाप की ।
बड़े लंबे समय तक पहनी।
और,
कई बार,
लगाये इसमे पायबंद ,
कभी 'मुफलिसी' के,
और कभी,
'बेचारगी' के .
पर,
इसकी सिलाई,
....
....
उधड गई थी, एक दिन.
...जब,
'भूख' का खूंटा लगा इसमे.
उसको हटाया,
तो नीचे...
पड़ी हुई थी,
'जवानी'.
उसका रंग उड़ गया था,
समय के साथ साथ।
'गुलाबी' हुआ करती थी ये .
अब पता नहीं ,
कौनसा,
नया रंग हो गया है?
बगल में ही,
पड़ी हुई थी,
'आवारगी'.
....उसमें से,
अब भी,
'शराब' की बू आती है।
४-५,
सफ़ेद,
गोल,
'खुशियों' की 'गोलियाँ',
डाली तो थीं,
संदूक में.
पर वो खुशियाँ...
....
....
.... उड़ गई शायद।
याद है...
जब तुम्हारे साथ,
मेले में गया था ?
एक जोड़ी,
'वफाएं' खरीद ली थी।
तुम्हारे ऊपर तो पता नहीं,
पर,
मुझपे...
.....
.....
ये अच्छी नही लगती।
और फ़िर...
इनका 'फैशन' भी,
...नहीं रहा अब .
...और ये,
शायद...
'मुस्कान' है।
तुम,
कहती थी न...
जब मैं इसे पहनता हूँ,
तो अच्छा लगता हूँ।
इसमें भी,
दाग लग गए थे,
दूसरे कपडों के।
हाँ...
....
....
इसको.....
'जमाने'
और
'जिम्मेदारियों'
के बीच रख दिया था ना ।
तब से पेहेनना छोड़ दी।
अरे...
ये रहा 'तुम्हारा प्यार'।
'वेल्लेनटें डे ' में,
दिया था तुमने।
दो ही महीने चला था,
हर धुलाई में,
सिकुड़ जाता था।
भाभी ने बताया भी था,
"इसके लिए,
खारा पानी ख़राब होता है."
पर आखें,
आँखें ये न जानती थी।
चलो,
बंद कर देता हूँ,
सोच के...
जैसे ही संदूक रखा,
देखा,
'यादें' तो बाहर ही छूट गई,
बिल्कुल साफ़,
नाप भी बिल्कुल सही.
लगता था,
जैसे,
आज के लिए ही खरीदी थी,
उस 'वक्त' के बजाज से
कुछ लम्हों की कौडियाँ देकर .
चलो,
आज...
फ़िर,
....
....
इसे ही,
पहन लेता हूँ .
दर्पण साह समय:
कितनी चाहतें ........ माँ ने कितने ख्वाब संजोकर दिए थे
ReplyDeleteपता था उसे ... यह बड़े काम की चीज होती है !
बेहतरीन प्रस्तुति ।
sab uthal puthal ho gaya... saari yaadein ulat-palat saamne aa gain...
ReplyDeletedil k kisi kone mei rakhee sandook khul gai...
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना ..लम्हों की कौडियाँ दे कर ... सुन्दर बिम्ब
ReplyDeleteचलो,
ReplyDeleteबंद कर देता हूँ,
सोच के...
जैसे ही संदूक रखा,
देखा,
'यादें' तो बाहर ही छूट गई,
बिल्कुल साफ़,
नाप भी बिल्कुल सही.
कमाल का लिखते हैं सर!
सादर
sachmuch bahut sundar evam behtreen bhavpoorn rachnaa padhkar bahut achaa laaga bahut dino baad kuch bahut hee acchaa padhne ko mila....
ReplyDeleteनीचे उसके,
ReplyDeleteतह करके,
सलीके से,
रखा हुआ है...
...'बचपन' ।
सुन्दर!
विम्बों के माध्यम से कितना कुछ कहती कविता!
नीचे उसके,
ReplyDeleteतह करके,
सलीके से,
रखा हुआ है...
...'बचपन' ।
गज़ब के बिम्बों ने जीवन के सफर को जीवंत बना दिया है.
सुन्दर सृजन को सम्मान , पावन पर्व की badhayiyan ,शुभकामनायें ...दिवाली मंगलमय हो ....../
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से सजाया हैं आपने अपना बचपन और जवानी का लम्बा सफ़र ! और बंद कर दिए हैं संदूक में न जाने कितने सपने ...?
ReplyDeleteसचमुच सहेजने कि ही चीज़ है संदूक लाजवाब प्रस्तुति
ReplyDeleteआपको व आपके परिवार को दीपावली कि ढेरों शुभकामनायें
बहुत ही सुन्दर... शुभ दिवाली...
ReplyDeleteदीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
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