नम हुई आँखों को कैसे पढ़ा उसने
मेरे भीतर के सन्नाटों को कैसे सुना उसने
मैंने तो सिरहाने रख छोड़े थे एहसासों को
कब धीरे से खींच पहना उसने -
रूठी खुद थी , पर मुझे ही मनाया उसने
एक पन्ने की सौगात दे लुभाया उसने ....
रश्मि प्रभा
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कविता तो मुझसे रूठी है!
कुछ बातें हैं तर्क से परे...
कुछ बातें अनूठी है!
आज कैसे अनायास आ गयी मेरे आँगन में...
अरे! एक युग बीता...कविता तो मुझसे रूठी है!!
चाँद तनहा है गगन में...
साथ की सारी परिकल्पनाएं विदीर्ण...टूटी है!
आज कैसे अनायास आ गयी मेरे आँगन में...
अरे! एक युग बीता...कविता तो मुझसे रूठी है!!
सुन्दर...निर्मल...ललित ही नहीं यहाँ...
कुछ ऐसे भी सत्य हैं...जिनकी दर्द भरी श्रुति है!
आज कैसे अनायास आ गयी मेरे आँगन में...
अरे! एक युग बीता...कविता तो मुझसे रूठी है!!
सच के इस काव्य प्रवाह में...
कोई बात नहीं बनावती, कोई बात नहीं झूठी है!
आज कैसे अनायास आ गयी मेरे आँगन में...
अरे! एक युग बीता...कविता तो मुझसे रूठी है!!
प्रेरणापुंज हो आप...
इस सत्य में कहीं न कोई त्रुटी है!
आज कैसे अनायास आ गयी मेरे आँगन में...
अरे! एक युग बीता...कविता तो मुझसे रूठी है!!
चरणधूलि को चन्दन..रोली..तिलक कहा है...
भावों के संसार की अलग अनुभूति है!
आज कैसे अनायास आ गयी मेरे आँगन में...
अरे! एक युग बीता...कविता तो मुझसे रूठी है!!
अनुपमा पाठक
वाह ...बहुत ही बढिया ।
ReplyDeleteनम हुई आँखों को कैसे पढ़ा उसने
ReplyDeleteमेरे भीतर के सन्नाटों को कैसे सुना उसने
मैंने तो सिरहाने रख छोड़े थे एहसासों को
कब धीरे से खींच पहना उसने ....
bahut sunder kavita..........
bhaut hi acchi.....
ReplyDeleteसमय चाहिए आज आप से,
ReplyDeleteपाई फुर्सत बाढ़ - ताप से |
परिचय पढ़िए, प्रस्तुति प्रतिपल,
शुक्रवार के इस प्रभात से ||
टिप्पणियों से धन्य कीजिए,
अपने दिल की प्रेम-माप से |
चर्चा मंच
की बाढ़े शोभा ,
भाई-भगिनी, चरण-चाप से ||
बहुत खुबसूरत गीत...
ReplyDeleteअनुपमा जी को बधाई...
सादर आभार...
sundar panktiyan anupama ji...
ReplyDeletesach hai kabhi kabhi kavita rooth jati hum kitna hi mane manti nahi aur ek din achanak se dabe paav aati hai aur fir se mahak uthta hai aangan shabdon aur bhavnaon ki khubu se.....
नम हुई आँखों को कैसे पढ़ा उसने
ReplyDeleteमेरे भीतर के सन्नाटों को कैसे सुना उसने
मैंने तो सिरहाने रख छोड़े थे एहसासों को
कब धीरे से खींच पहना उसने -
रूठी खुद थी , पर मुझे ही मनाया उसने
एक पन्ने की सौगात दे लुभाया उसने ....
इन सुन्दर पंक्तियों के साथ मेरी रचना को वटवृक्ष पर स्थान देने के लिए आभार रश्मि जी!
मेरे प्रयास को सराहने के लिए आप सबों का आभार!
कविता आखिर कब तक रूठेगी....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव
जब रूठी है तब इतनी प्रभावशाली है...
ReplyDeleteदूरी का एहसास भी पास भी. सारगर्भित.
ReplyDeleteकहाँ रूठी थी वरना ऐसे कागज पर उतरती कैसे !
ReplyDeleteसुन्दर गीत !
बहुत सुंदर गीत,
ReplyDeleteबधाई,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
bhaut hi khubsurat....
ReplyDeleteकविता अनुपमा जी से रूठ ही नहीं सकती क्योंकि उनके द्वारा पिरोए गए शब्द कविता का मान बढ़ाते हैं।
ReplyDeleteसादर
बहुत ही गहरे भाव भरे हैं।
ReplyDeleteअरे! एक युग बीता.bahut musshkil hota hai jab rooth jati hai man ki bhasha hamse ...............कविता तो मुझसे रूठी है!! superb post
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