जो देता है, वह लेता नहीं ... देता जाता है
रश्मि प्रभा
जो देता है , उसकी अहमियत हम नहीं समझते
उसे इस्तेमाल करते हैं और चल देते हैं ....
रश्मि प्रभा
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लकडहारे से
फेंक दो कुल्हाड़ी,
सुस्ता लो कुछ देर,
मेरे घने पत्तों की छाँव में.
काट रहे हो कब से मुझे,
थक गए होगे तुम,
छाले पड़ गए होंगे हाथों में.
अभी तो मैं खड़ा हूँ अपनी जगह,
पत्ते भी हैं हरे भरे,,
पर कट चुका हूँ इतना
कि मरना तो अब तय है
और तय है पत्तों का सूख जाना.
अभी वक़्त है, सुस्ता लो छाँव में,
फिर काट लेना मुझे पूरी तरह,
भागकर कहीं नहीं जाऊँगा मैं,
जहाँ हूँ, वहीँ रहूँगा,
उस वक़्त भी तो खड़ा था चुपचाप,
जब तुमने मुझे काटना शुरू किया था.
कविता में वृक्षों की कटान का दर्द है...वाह !!
ReplyDeletebht bht achha likha h,..sach ped hme itna dete hn ar ek hm ensaan hai bhookh khatam hone ka naam hi nhi leti...
ReplyDeleteव्रक्षों के दर्द को बहुत हे बढ़िया और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है।
ReplyDeletewaah... kitna dard likh diya...
ReplyDeletebahut khoob...
अभी वक़्त है, सुस्ता लो छाँव में,
ReplyDeleteफिर काट लेना मुझे पूरी तरह,
भागकर कहीं नहीं जाऊँगा मैं,
जहाँ हूँ, वहीँ रहूँगा,
.....
वृक्षों की दर्द सहकर भी परोपकार की भावना को उजगार करती अनूठी कविता|
व्रक्षों के दर्द को बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। धन्यवाद....
ReplyDeleteबेहतरीन भावाव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सार्थक रचना , आभार
ReplyDeleteअभी वक़्त है, सुस्ता लो छाँव में,
ReplyDeleteफिर काट लेना मुझे पूरी तरह,
भागकर कहीं नहीं जाऊँगा मैं,
जहाँ हूँ, वहीँ रहूँगा,
उस वक़्त भी तो खड़ा था चुपचाप,
जब तुमने मुझे काटना शुरू किया था.
Aprateem!
आँखे नम कर गयी ये रचना !
ReplyDeleteदिल को छूती रचना...
ReplyDeleteइस भागती दुनिया में कहाँ कोई एहसान याद रखता है...
ReplyDeleteवृक्ष के माध्यम से मानव के लालच और वटवृक्ष जैसे व्यक्तित्व के धैर्य का बयां होता है!
bhaut khubsurat rachna....
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