हे अग्नि देवता!
शारीर के पंचतत्वों में,
तुम विराजमान हो,
तुम्ही से जीवन है
तुम्हारी ही उर्जा से,
पकता और पचता भोजन है
तुम्हारा स्पर्श पाते ही,
रसासिक्त दीपक
ज्योतिर्मय हो जाते है,
दीपवाली छा जाती है
और,दूसरी ओर,
लकड़ी और उपलों का ढेर,
तुमको छूकर कर,
जल जाता है,
और होली मन जाती है
होली हो या दिवाली,
सब तुम्हारी ही पूजा करते है
पर तुम्हारी बुरी नज़र से डरते है
इसीलिए, मिलन की रात,
दीपक बुझा देते है
तुम्हारी एक चिंगारी ,
लकड़ी को कोयला,
और कोयले को राख बना देती है
पानी को भाप बना देती है
तुम्हारा सानिध्य,सूरत नहीं,
सीरत भी बदल देता है
तो फिर अचरज कैसा है
कि तुम्हारे आसपास,
लगाकर फेरे सात,
आदमी इतना बदल जाता है
कि माँ बाप को भूल जाता है
बस पत्नी के गुण गाता है
इस काया की नियति,
तुम्ही को अंतिम समर्पण है
हे अग्नि देवता! तुम्हे नमन है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू'
http://ghotoo.wordpress.com/
वाह ...बहुत बढि़या ।
ReplyDeleteवाह ………अति उत्तम कृति।
ReplyDeleteअग्नि तो एक जड़ भूत है... हमने उसे देव की तरह पूजा है... पर मानव चेतन है वह स्वतंत्र है... दीवाली की शुभकामनायें!
ReplyDeleteboht boht sundar
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर, जड़ और चेतन का अद्भुत समिश्रण. अद्वैत की पुष्टि करती मनोहारी रचना. बधाई
ReplyDeletehar shabd ke sath bhavpurn prastuti
ReplyDeleteउत्तम रचना....
ReplyDeleteसादर बधाई...
bahut achchi lagi.....
ReplyDeleteसारगर्भित रचना ... बहुत अच्छी लगी. धन्यवाद.
ReplyDeleteअग्नि पंचतत्व का ही एक अंग , जिसमे पूरी सृष्टि का सार !
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