मेरी तेरी उसकी मधुशाला
उपेन्द्र दुबे
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मेरी मधुशाला ……….
कल रात छलकते प्याले से,
दो घूँट हलक से क्या उतरी |
बन गयी रात जज्बातों की,
वो शाम फलक से क्या उतरी | |
अंदर में दबा सैलाब भी था ,
अरमानों का एक ख्वाब भी था |
यादों से भरी एक प्याला थी,
अंदर पूरी मधुशाला थी | |
दिल से ही बिखर कर इर्दगिर्द ,
दिल में ही दिल का राज भी था |
मदमस्त जवां सी धडकन में ,
टूटे तारों का साज भी था | |
वो रात भी क्या मतवाली थी , कितनी गहरी और काली थी ……………
अंतः से निकलती थी हाला ,
ले हांथों में जिसकी प्याला |
साकी वो बनी एक बाला थी ,
पर टूटे ख्वाबों की माला थी | |
जिसके पाजेब की छनछन से ,
कर्कश परिभाषित होती थी |
कंगन की खनखन से जिसके,
परिवेश बदलती रोती थी | |
मतवाला सा मैं भागा था ,
जग सोया और मैं जागा था ….
उस रात कबर पर अपने ही,
एक शाम जलाया था मैंने |
एक नाम चुराने की खातिर ,
अरमान जलाया था मैंने | |
पर नहीं मिली मुझको हाला , अब टूट गयी हर एक प्याला …
उस घूँट में क्या कोई जादू था ?
या मेरा मन बेकाबू था ?
वो नशा नशे पे भारी था ?
या दाँव पे कोई जुवारी था ?
वीरान हुई क्यूँ मधुशाला ?
अब दूर खड़ी है क्यूँ बाला ?
अधरों पर मदिरा अब भी है ,
पर न जाने किस प्याले की |
क्यूँ कब्र पे अब भी अपने ही ,
हर शाम जलाया करता हूँ ?
वो नाम चुराने को अब भी ,
अरमान जलाया करता हूँ | |
उपेन्द्र दुबे
ekdam lajabab........
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteBahut Khub ji....!
ReplyDeleteवाह लाजवाब मधुशाला।
ReplyDeleteबढिया, बहुत सुंदर
ReplyDeletebahut umda.
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteकुछ चढ़ रहा है.
ReplyDeletewaah....
ReplyDeletekhoob...
lajawaab...
Is madhushala ka to jawab nahi ...
ReplyDeleteबढिया,लाजवाब मधुशाला।
ReplyDeletebehtreen rachna.....
ReplyDeletesundar rachna....
ReplyDeleteवाह लाजवाब !
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDeleteकल रात छलकते प्याले से,
ReplyDeleteदो घूँट हलक से क्या उतरी |
बन गयी रात जज्बातों की,
वो शाम फलक से क्या उतरी ||
बहुत खूब. सुंदर लेखन. उपेन्द्र जी बधाई.
शानदार लेखन...
ReplyDeleteउपेन्द्र जी को बधाई...
सादर.
बहुत सुन्दर , सार्थक रचना , सार्थक तथा प्रभावी भावाभिव्यक्ति , ब धाई
ReplyDeletebahut sunder rachna
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