कविता यानि एहसास
रश्मि प्रभा
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एहसासों से पेट नहीं भरता
और बाज़ार में एहसास नहीं पनपते
रश्मि प्रभा
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कविता और बाज़ार
बाज़ार आदमी की
रोजमर्रा की जरूरतों से पैदा हुआ
और कविता मन के
एकांत में उठती
लहरों की उथल-पुथल से
फिर दोनो में जंग छिड़ गई
कविता की जगह खारिज करता हुआ
बाज़ार नित्य घुसता रहा
आदमी की चेतना में हौले-हौले
संचार के नूतन
तरीकों-तकनीकों को अपनाकर
भाषा की नई ताबिश में
ज्यादातर चुप रहकर
वह
ऐसी लिपि... ऐसी भाषा
के इज़ाद के जुटान में रहा
जो आदमी को फाँसकर उसे
केवल
एक ग्राहक-आदमी बना दे, तभी तो
उसके चौबारों घरों...
यहाँ तक कि बिस्तरों पर भी
टी. वी. स्क्रीनों के मार्फ़त
विज्ञापन की नई-नई चुहुलबाजियों के जरिये
रोज़ काबिज हो रहा
बहुत चालाकी से उसने
कविता के लिये
कवि-भेसधारी हिजड़ों की
फ़ौजें भी तैयार कर ली
जो बाज़ार की बोली बोल रहीं
विज्ञापन के रोज़ नये छंद रच रहीं
मंचों पर गोष्ठियों में
अपनी वाहवाही लूट रहीं और लोगों की
तालियाँ बटोर रहीं
पर बाज़ार को क्या मालूम कि
कविता अनगिनत उन
आदिमजातों की नसों में
लहु बन कर
दौड़ रही हैं
जो बाज़ार के खौफ़नाक़ इरादों से सावधान होकर
अधजले शब्दों की ढेर से
अनाहत शब्द चुन रहे हैं
और भाषा की रात के खिलाफ़
हृदय के पन्नों पर
नई कवितायें बुन रहे हैं
बस, पौ फटने की देर है
कि आदमी बाज़ार की साजिशों के विरुद्ध
कबीर की तरह लकुटी लिये जगह-जगह
इसी बाज़ार में खड़े मिलेंगे आपको
जिनके पीछे कवियों का कारवाँ होगा ।
सुशील कुमार
"बस, पौ फटने की देर है
ReplyDeleteकि आदमी बाज़ार की साजिशों के विरुद्ध
कबीर की तरह लकुटी लिये जगह-जगह
इसी बाज़ार में खड़े मिलेंगे आपको
जिनके पीछे कवियों का कारवाँ होगा ।"
बड़ी दिलचस्प रचना है! आभार!
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteऔर भाषा की रात के खिलाफ़
ReplyDeleteहृदय के पन्नों पर
नई कवितायें बुन रहे हैं
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वाह! कमाल की बात!
खूबसूरत कविता..बहुत प्रभावशाली..
ReplyDeletebahut khoob... lajawaab...
ReplyDeleteabhi kal ki hi baat hai mujhe bhi kisi ne yahi sujhav diya ki yadi mujhe likhne ko hi apna profession banana hai to mai kavitaon ki jagah articles mei jyada dhyaan doon... kal hi smajh aaya ki professionalism ke liye apni rooh se alag hona padta hai...
कविता अनगिनत उन
ReplyDeleteआदिमजातों की नसों में
लहु बन कर
दौड़ रही हैं
जो बाज़ार के खौफ़नाक़ इरादों से सावधान होकर
अधजले शब्दों की ढेर से
अनाहत शब्द चुन रहे हैं
और भाषा की रात के खिलाफ़
हृदय के पन्नों पर
नई कवितायें बुन रहे हैं
गहन अर्थ से परिपूरण बेहद सुंदर अभिवक्ती Hates of to you mam...... :)
सामयिक..सटीक...सुन्दर अभिव्यक्ति.आपको बधाई.
ReplyDeleteपर बाज़ार को क्या मालूम कि
ReplyDeleteकविता अनगिनत उन
आदिमजातों की नसों में
लहु बन कर
दौड़ रही हैं
जो बाज़ार के खौफ़नाक़ इरादों से सावधान होकर
अधजले शब्दों की ढेर से
अनाहत शब्द चुन रहे हैं
और भाषा की रात के खिलाफ़
हृदय के पन्नों पर
नई कवितायें बुन रहे हैं
वाह...हर कवि के दिल की बात कह दी आपने ...धन्यवाद..:)
क्या ही खूब संशोधनात्मक अभिव्यक्ति है। लाजवाब प्रस्तुति!!
ReplyDeleteदिवा स्वप्न।
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत रचना , सुन्दर प्रस्तुति , बधाई
ReplyDeleteसटीक...सुन्दर अभिव्यक्ति......
ReplyDeleteबहुत शानदार और गहनाभिब्यक्ति /बधाई आपको /
ReplyDeleteplease visit my blog.
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कविता बाजार को हरा पाए तो निश्चित ही ह्रदय से निकली होगी ...
ReplyDeleteबेहतरीन !
बेहद गहन चिन्तन्।
ReplyDeleteसंशोधनात्मक अभिव्यक्ति । लाजवाब प्रस्तुति!!
ReplyDeletebehad umdaa prastuti, shubhkaamnaayen.
ReplyDeleteजो बाज़ार के खौफ़नाक़ इरादों से सावधान होकर
ReplyDeleteअधजले शब्दों की ढेर से
अनाहत शब्द चुन रहे हैं
और भाषा की रात के खिलाफ़
हृदय के पन्नों पर
नई कवितायें बुन रहे हैं
ha kavita to man likhate hi rahtaa hai
use bhala kaun rok saktaa hai
baazar ki parvaah kavi man nahi kartaa
कविता यानि एहसास
ReplyDeleteएहसासों से पेट नहीं भरता
और बाज़ार में एहसास नहीं पनपते
kavita or kavi ke marm ko khoob nichoda hai aapne ..