मन तो मन है
रश्मि प्रभा
अपने ही सपनों ख्वाहिशों के बीच
साँसों से दूर होने लगता है
फिर अपने ही भीतर से निकल
ढूंढता है कुछ अपना
कुछ धरती कुछ आकाश ....
रश्मि प्रभा
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प्रतिध्वनि
एक शाम
भीतर की ऊमस और बाहर के घुटन से घबराकर
निकल पड़ा नदी के साथ-साथ
नदी जो नगर के बाहर
धीरे-धीरे बहे जा रही है
अब यह जो बह रहा है वह कितना पानी है
कितना समय कहना मुश्किल है ?
बहरहाल शहर के चमक और शोर के बीच
उसका एकाकी बहे जाना
मुझे अचरज में डाल रहा था
जैसे यह नदी इतिहास से सीधे निकल कर
यहाँ आ गयी हो
अपनी निर्मलता में प्रार्थना की तरह
कोई अदृश्य पुल था जो जोड़ता था
बाहर के पानी को भीतर के जल से
कि जब पुकारता था बाहर का प्रवाह
टूट कर गिरता था अन्दर का बांध
जो बाहर था
मुक्त कर रहा था भीतर को .
अरुण देव
gahan ...sunder abhivyakti....
ReplyDeleteBahut hi gahrai se bhav vyakt kiye hain Arun ji aapne.. Aabhar..
ReplyDeleteगहन अनुभूति....
ReplyDeleteबहुत गहन अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteBEHAD GAHAN ABHIVYKTI
ReplyDeletebhaut hi khubsurat abhivaykti....
ReplyDeleteक्या बात है
ReplyDeleteबहुत सुंदर
अरुण जी की सुन्दर कविताओं में एक... इसे साझा करने के लिए रश्मि जी का धन्यवाद ...और रश्मि जी के शब्द भी हमेशा की तरह बेजोड ..
ReplyDeleteThis is fine one thanks .
ReplyDeleteकोई अदृश्य पुल था जो जोड़ता था
ReplyDeleteबाहर के पानी को भीतर के जल से
कि जब पुकारता था बाहर का प्रवाह
टूट कर गिरता था अन्दर का बांध
जो बाहर था
मुक्त कर रहा था भीतर को .
अद्भुत
बहुत ही दिलकश और रूमानी ख्यालात
ReplyDeleteकोई अदृश्य पुल था जो जोड़ता था
ReplyDeleteबाहर के पानी को भीतर के जल से
कि जब पुकारता था बाहर का प्रवाह
टूट कर गिरता था अन्दर का बांध
जो बाहर था
मुक्त कर रहा था भीतर को .
man ko sprsh karti huii kavitaa