तिनके-तिनके से गौरैया
अपना नीड़ बसाती है
संध्या होने से पहले ही
दाना लेकर आती है
नीड़ में बच्चे शोर मचाते
भूख लगी माँ दाना दो
खिला-पिलाकर बच्चों के संग
सपनों में खो जाती है (श्रीमती सरस्वती प्रसाद )
रश्मि प्रभा
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मेरा नन्हा सा घोसला
रोज़ जोडती हूँ तिनके
थक गयी हूँ बिनते बिनते
पर मेरा नन्हा सा घोसला
झेल रहा न जाने कितनी बला
कभी बारिश, कभी तूफ़ान,
कभी गर्मी का उफान
कभी सुलगाता है
कभी डुबो जाता है
कभी पानी पर उतराता है
कभी आहट से थरथराता है
फिर भी पंखो के नीचे समेटे हुए
घोसले और उसके परिंदों को
बचाने की कोशिशों में
काट रही हूँ ये धधकते, कड़कते दिन
क्योंकि जिंदगी के कुछ मायने नहीं
इन परिंदों और घोसले के बिन
रंजना डीन
पिछले तीन वर्षों से एमिटी यूनवर्सिटी में प्राध्यापिका के रूप में कार्यरत हूँ. प्राक्रतिक सौंदर्य मुझे बचपन से आकर्षित करता रहा और उसे मै उतारती रही कभी फोटोग्राफी, कभी कला तो कभी कविताओं के माध्यम से. जब भी समय मिलता है मै मन के कैनवास को भावनाओ के रंगों से भरने बैठ जाती हूँ और इस कैनवास से बहते हुए रंग अक्सर मेरे ब्लाग पर दिखते रहते हैं.
आभार सहित
रंजना डीन
सुन्दर कविता.
ReplyDeleteआपकी कविता अच्छी लगी............
ReplyDeleteदोनों कविताएँ अच्छी लगी.........आभार
ReplyDeleteफिर भी पंखो के नीचे समेटे हुए
ReplyDeleteघोसले और उसके परिंदों को
बचाने की कोशिशों में
काट रही हूँ ये धधकते, कड़कते दिन
क्योंकि जिंदगी के कुछ मायने नहीं
इन परिंदों और घोसले के बिन...
बहुत सुन्दर भाव और प्रभावशाली शब्द.
दोनों कविताएँ अच्छी लगी......धन्यवाद
ReplyDeleteसुंदर भावनाओं से सजी सुंदर कविताएं।
ReplyDeleteबहुत खूब ... सच में किसी के एहसास के बिना जीवन के क्या मायने ... अपने परिंदों अपने बच्चों के बिना इस घर के क्या मायने ....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत कविता ...
ReplyDeletewaaahhh
ReplyDeleteरन्जन जी की कविता बहुत सुन्दर है ... अम्मा जी की कविता तो है ही लाजवाब !
ReplyDeleteवाह ………।गज़ब्।
ReplyDeleteबाल दिवस की शुभकामनायें.
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (15/11/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
बचाने की कोशिशों में
ReplyDeleteकाट रही हूँ ये धधकते, कड़कते दिन
क्योंकि जिंदगी के कुछ मायने नहीं
इन परिंदों और घोसले के बिन
एक माँ अपने बच्चों के लिये ही अपनी सारी उम्र कैसे लगा देती है। रंजना जी की कविता दिल को छू गयी। बधाई उन्हे। रश्मि जी आपका धन्यवाद। हमे अच्छी अच्छी रचनायें पढवाने के लिये।
क्योंकि जिंदगी के कुछ मायने नहीं
ReplyDeleteइन परिंदों और घोसले के बिन
ati sundar .....................
दोनों रचनाएँ बहुत खूबसूरत ... शुक्रिया हमारे साथ बांटने के लिए ....
ReplyDeleteसचमुच दोनों रचनाओं का जवाब नहीं ...आभार प्रस्तुत करने के लिए !
ReplyDeleteजिन्दगी के कुछ मायने नहीं ...परिंदों और घोंसले के बिन ...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति !
आप सभी को हार्दिक धन्यवाद. विशेष तौर पर रश्मि प्रभा जी को, जिन्होंने मेरी कविता को इस योग्य समझा. कभी फुरसत के कुछ लम्हों में मेरे ब्लॉग पर भी आप सब सादर आमंत्रित है...ranjanathepoet.blogspot.com
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ReplyDeleteअति सुंदर।
ReplyDelete---------
जानिए गायब होने का सूत्र।
बाल दिवस त्यौहार हमारा हम तो इसे मनाएंगे।
सुन्दर रचना...
ReplyDeleteक्योंकि जिंदगी के कुछ मायने नहीं
ReplyDeleteइन परिंदों और घोसले के बिन.
sach kaha -jine ke liye koi na koi karan khojne hi hote hai
sunder kavitaye...
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