सदियों से बनी चित्रकारों की पेंटिंग्स देख देखकर हैरानी होती रही है
किसी भी चित्रकार नेऔरत को जिस्म से ज्यादा ना पेंट किया है और ना ही सोचा है...
सम्पूर्ण औरत जिस्म से कहीं बढकर होती है
सोया तो जा सकता है जिस्म के साथ
पर जागा नहीं जा सकता
अगर कभी चित्रकारों ने पूर्ण औरत के साथ जागकर देखा होता
तो और ही हो गई होती चित्रकला
...(इमरोज़).....
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स्त्री- देह का सच
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स्त्री की यादों में बहुत कुछ ऐसा होता है जो उसके मन को बेधता है ! .. स्त्री देह ऐसी है कि मात्र १३- १४ वर्ष की उम्र आते आते ही प्रश्न खड़े लगती है .प्रश्न चौराहों से होते जाते हैं .. लोगों के सवाल और सवाल बनती देह कुछ इस तरह उलझते हैं कि ताजिंदगी उनके जवाब संजीदा नहीं होने पाते .स्त्री देह के उभार पुरुष को उसके प्रति लोलुप करते हैं .और तथाकथित मर्यादाएं मय साक्ष्य के झूठ बोलती हैं देह न्यायलय में ही नंगी कर दी जाती है .स्त्री भ्रमाकुल हों उठती है ! .देह का सच, स्त्री का सच और पुरुष का सच, स्त्री इन्हीं तीनों से बनती जाती है !.उसकी तहों में अँधेरे तहखाने तो होते ही हैं उसकी सतरंगी दुनिया भी वहीँ कहीं बसी होती है लेकिन उसकी देह कभी उसको सुख की नींद सोने नहीं देती है !
इसमें कोई संदेह नहीं कि .उसकी देह की व्यवस्था अदभुत है और यही उसके दुःख का कारण भी है .क्या स्त्री मुक्त होती यदि वह गर्भ की संरचना से मुक्त होती ?क्या वह भी बेहद सामान्य और सहज होती ?लेकिन गर्भ धारण करने की क्षमता जहाँ उसको विलक्षण बनाती है वही शायद समस्या का मुख्य कारण भी है ! स्त्री की अंतर्चेतना में उसकी देह सतत हावी रहती है.! विज्ञान के आविष्कारों के चरम पर पहुँच जाने के बाद भी क्या इंसान अपनी आदिम भूख से परे नहीं जा पाया ? और कुदुरती तौर पर स्वार्थी अत्याचारी और संकीर्ण रह गया ? वह वक़्त कब आएगा जब स्त्री अपनी देह के आडम्बर से मुक्त हों जायेगी और खुले मैदानों में पुरुष का हाथ पकड़ कर उसकी देह की लय से अपनी देह की झंकार मिलाती उस पार की घास छू पाएगी ? या पुरुष की तरह उसे भी निरंकुश दुनिया बसानी होगी ?
प्रज्ञा पांडेय
जन्मस्थान -मऊ नाथ भंजन
एकाध पत्रिकाओं में कुछ रचनाएँ प्रकाशित
पढ़ने में विशेष रूचि
स्त्री-देह का सच..... एक ऐसा सच है, जिसे बदलने में पता नहीं और कितना वक्त लगेगा? सुबह-सुबह सबसे पहले आपका ये पोस्ट पढ़ा, सोच में पढ़ गई. साथ में लिखी कविता भी बहुत अच्छी बनी है. सचमुच जो स्त्री देह से आगे देख पाएं तो कुछ और ही बन जायेगी चित्रकला.
ReplyDeleteयह सच है, नारी मन शायद सदा से ही इस एक पहलू के चलते कभी भी पुरूष के बराबर स्थान नहीं पा पाता!
ReplyDeleteएक अनछुये विषय पर सारगर्भित रचना!विचारोत्तेजक व साहसिक प्रयास!शुभकामनायें!
कुछ सच हर जगह एक सा रहता है ... और कुछ सच बदलता है जैसे जगह और समाज बदले ...
ReplyDeleteकुछ सच सच नहीं होते हैं .. उन्हें सच बनाया जाता है ...
कुछ सच को झुठला दिया जाता है ...
और कुछ सच समझने की कोशिश नहीं की जाति है ...
बहुत ही सही एवं सटीक बात कही आपने ...आभार इस सुन्दर लेखन के लिये ।
ReplyDeleteउफ़! एक कडवा सच मगर सत्य हमेशा सत्य रहता है जिसे झुठलाया नहीजा सकता उसे आपने बेहतर शब्द दिये हैं।
ReplyDeleteनारी अतंर्मन को मथते इस अनुत्तरित प्रश्न और संवेदनशील मुद्दे पर विचारोत्तेजक एवं मर्मस्पर्शी आलेख के लिए आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
bhagwan ki sanrachna bhagwan hi jane........:)
ReplyDeleteaur jahan tak us purush ke tarah aage badhne ki baat, to sayad issme adhiktar safal bhi ho rahi hain..........!!
vicharotejjak aalekh!!
न जाने कितनी बार भोगा तुमने मुझे
ReplyDeleteकाश मेरे अंतर्मन को मात्र देखा होता...
दोनों गज़ब हैं...
सोया तो जा सकता है जिस्म के साथ
ReplyDeleteपर जागा नहीं जा सकता
क्या इमरोज को खबर नहीं कि - जनक, जिस्म के साथ ही आजीवन जागे और विदेह कहलाये।
पर हकीकत यही है। आदमी सोया हुआ ही पैदा होता है और गिने चुने अपवादों को छोड़, सोया हुआ ही परम निद्रा में लीन हो जाता है...
रश्मि जी अपने आलेख को यहाँ देखकर खुशी हुई .आभार व्यक्त करती हूँ .. ..
ReplyDeleteइमरोज़ की पंक्तियाँ मार्मिक हैं ..यदि स्त्री के साठ जागा जा सकता तो यह दुनिया सचमुच बहुत ही सुन्दर होती !
Bahut hi sundar and nazuk subject
ReplyDeleterasmi di
ReplyDeletepahli baar aapke vat-vrixh par aai hun par yaha aane par laga ki der kar di .----
par ab aage bhi aati rahungi kyon ki yaha aane ko man majboor ho gaya hai.
praga pandaya o sir imroj ji dono hi logo ke vicharo ko unke aalekho se padh karavgat hui.
ekbahut hi prabhav-purn avam sochne ke liye vivash karti sashakt prastuti.
poonam
स्त्री की देह उसे माँ बनाकर श्रृष्टि निर्माता के स्तर का बनाती है , मगर उसकी बहुत सी समस्यों की वजह भी ...
ReplyDeleteलेख भूमिका के साथ और भी मुखर हो गया है ...
आभार !
सारगर्भित रचना,शुभकामनायें!
ReplyDeleteसच में यदि स्त्री को देह से ज्यादा समझा गया होता तो दुनिया कुछ और होती .. इस पोस्ट को देख कर अमृता जी की एक नज़्म याद आगई...
ReplyDelete" कभी दीवारों में चिन्नी गयी
कभी बिस्तर में...
औरत का सिर्फ बदन होता है
वतन नहीं होता ... "
बेहतरीन अभिव्यक्ति...................
ReplyDeletePragya ji.....sach kaha aapne lekh main....saubhagya ye satya sunder bhashaa main paDhne ko mila...
ReplyDeleteचित्रकारी तो केवल इस्त्री की देह पर ही चली है ...किसी ने सहस ही नहीं किया की दिमागपर भी चलायें |कुछ कोशिश इमरोज ने की है ...वोह भी अपनी दोस्त की संगत से ...नीलम शंकर
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