किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई...!
मुनव्वर राना की इन पंक्तियों के साथ प्रस्तुत है कुछ अलग-अलग से सवाल माँ के नाम......
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माँ,
अब क्या करोगी?
कैसे लौटाओगी मुझे
उन रास्तों पर,
जो मेरे नहीं थे........
तुम भ्रम का विश्वास देती रही,
जिसे मैं सच्चाई से जीती गई...
जब भी ठेस लगी,
तुमने कहा-'जाने दो,
जो हुआ -यूँ ही हुआ'
ये 'यूँ ही' मेरे साथ ही क्यों होता है !
तुमने जिन रिश्तों की अहमियत बताई,
उन्होंने मुझे कुछ नहीं माना......
मैं तो एक साधन- मात्र थी माँ
कर्तव्यों की रास से छूटकर
जब भी अधिकार चाहा
खाली हाथ रह गई....
फिर भी,
तुम सपने सजाती गई,
और मैं खुश होती गई..........
पर झूठे सपने नहीं ठहरते
चीख बनकर गले में अवरुद्ध हो जाते हें
और कभी बूँद-बूँद आंखों से बह जाते हें!
इतनी चीखें अन्दर दबकर रह गईं
कि, दिल भर गया
इतने आंसू -कि,
उसका मूल्य अर्थहीन हो गया........
माँ,
ज़माना बदल गया है,
जो हँसते थे तुम्हारे सपनों पर
वे उन्हीं सपनों को लेकर चलने लगे हें
पर कुछ इस तरह,
मानों सपने सिर्फ़ उनके लिए बने थे.........
माँ,
मैंने तुमसे बहुत प्यार किया है,
और माँ,
मैं इस प्यार में जीती हूँ
पर माँ,
मैं तुम्हारे झूठे भ्रम को
अब अपनी पलकों में नहीं सजा पाउंगी,
तुम जो जोड़ने का सूत्र उठाती हो
उसे छूने का दिल नहीं होता........
लोग जीत गए माँ,
मेरा मिसरीवाला घर तोड़ गए
मैं ख़ुद नहीं जानती,
मैं कहाँ खो गई......
माँ,
अब तुम क्या करोगी?
कैसे लौटाकर लाओगी मुझे?
बोलो माँ, बोलो!!!
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एक चिट्ठी माँ के नाम
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माँ$$$$ तुम कैसी हो ? मैं जानती हूँ कि तुम हम सबको बहुत याद करती हो ...पर क्या करूँ आज मैं माँ हूँ तो अपने घर की सारी जिम्मेदारियां निभाते निभाते मैं जब थकने लगती हूँ तो तुम्हारा चेहरा मेरे सामने आ जाता है कि कैसे तुम आज भी बिना थके कम करती हो .....तुम कहा करती थी ना कम प्यारे होंदे ने चाम नही .................हाँ सारे तो खुरी सारही चंगी ..................तो बस .आज मैं तुमको जी रही हूँ अपने अंदर .......जब बच्चे कभी मुझे नहीं सुनते . हसबैंड बिज़ी रहते हैं तो मुझे तुम्हारा चेहरा याद आता है कि कैसे तुमने अपना वक़्त गुज़ारा होगा जब हम सब बहनें अपने घर में आ गयी और भाई अपने घरों में व्यस्त ............क्या तुमको मन का कोना सूना नहीं लगा .................????????? आज जब तुम्हारी आँखों को देखती हूँ तो पता चलता है कि कितना अकेलापन .सूनापन है तुम्हारे अंदर .......भीड़ में अकेली मेरी माँ ..............आज अकेली पर फिर भी चारों ओर लोगों की भीड़ ...मैं जानती हूँ आज तुम आखिरी सीढ़ी पर हो अपनी ज़िन्दगी की ......और मैं तुमको जाकर कुछ कह भी नहीं पा रही ...........मैंने तुमको हमेशा सताया ....दुःख दिया ........ मैंने वो सब कभी नहीं किया जो तुमने चाहा .आज भी माँ बनकर अपने हिसाब से ही जीना चाहा ...... शायद ये मेरा विद्रोह होगा कि आपने अपनी मर्ज़ी से लाइफ नहीं जी .तो हम तो जियें ................. आज मैं माँ बन गयी हूँ और तुमको जब बच्चे की तरह कहती हूँ कि ऐसा मत किया करो .तब तो कह डालती हूँ लेकिन बाद में अकेले सोचती हूँ कि मेरे बच्चे भी कल मुझे ऐसे ही कहेंगे ............ मैं आज तक आपसे मन की बात नहीं कह पाई .......कि मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ , तुमको खोने की कल्पना से भी डरती हूँ ..... कल जब सुना कि तुम ठीक नहीं हो ??????? तो तुमको फ़ोन किया पर तुमने कितने कांफिडेंस से बात की कि मैं ठीक हूँ ........ वाह !! माँ .................बेटी परेशान ना हो .सो तुम अपना गम बताना भी भूल गयी .सच हम सब बहनें एक साथ तुम्हारे पास कुछ दिन बिताना चाहती हैं लेकिन असंभव है ये सब .......... सबके अपने घर अपनी जिम्मेदारियां ........फिर ............क्या करें .बेटियाँ इतनी परायी क्यूँ हो जाती हैं ....... कि अंतिम पड़ाव पर माँ के पास भी नहीं जा पाती ............मैं बहुत कमज़ोर हो गयी हूँ तुम्हारी बीमारी की बात सुनकर ..............मेरा मन बहुत उदास हो गया है
.......प्लीज़ मत जाओ मेरे मन के कोने को सूना करके .........................
नीलिमा शर्मा
neavy41@gmail.com
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माँ आज कहना है
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आज ख़त लिखने बैठी हूँ तुम्हे ...कुछ सूझ नहीं रहा कहाँ से लिखना शुरू करूँ ..आज से पहले तुम्हे कभी कोई पत्र लिखा नहीं मैंने , लिखने की जरुरत नहीं समझी ...क्यूँ ? पता नहीं ...शायद तुम पढ़ नहीं सकती थी ...या फिर शायद इसलिएकि मां को पत्र लिखने की जरुरत क्या है ...मां तो यूँ भी सब जानती है ...बिना कहे , बिना सुने ...
मगर आज जब लिखने बैठी हूँ तो अपने बचपन से तुम्हे जोड़ कर देखना चाहती हूँ ...अपनी सफ़ेद झक फ्रिल वाली फ्रॉक याद है मुझे , कभी- कभी खाना खिलाते हुए दादी का चेहरा भी याद आता है , तुम नजर नहीं आती हो ...कभी लाड़-करते हुए ....क्यूँ ...शायद तुम्हे इतना समय ही नहीं मिला ...या जिन दिनों तुम मुझे दुलारती रही होगी , वह समय स्मृतियों के दायरे में कैद नहीं होने वाला रहा होगा ...
तुम ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी मगर अपने बच्चों (बेटियों को भी) खूब पढ़ते लिखते देखना चाहती थी तुम ...कभी आम माओं की तरह बेटियों को घर के काम सीखने के लिए झिक- झिक करते नहीं देखा तुम्हे ...तुम्हे अंग्रेजी और गणितनहीं आती थी , तुम पापा से पूछ कर हमें पढ़ाती रही ...याद नहीं है मुझे ...तुम ही बताया करती थी ...कहाँ से याद होगा ...क्यूंकि ये दिन तो बहुत कम ही रहे होंगे ...हम भाई- बहनों की बढती संख्या के बीच यह सब छूट ही गया होगा जल्दीही ...तुम्हारी गोद में बिताने वाला समय शायद इसलिए ही याद नहीं है .....तुम्हारे साथ ज्यादा समय रही भी तो नहीं मैं....किशोरावस्था और युवावस्था का ज्यादा समय दादी- नानी , मामी-चाची के साथ बीता .....कितने एहसासों से गुजरीमैं , कितना रोई , कितना हंसी , मैं कब बीमार रही , कब बहुत खुश रही ....तुम्हे कहाँ पता है मां ....मैं तुमसे बहुत दूर रही ...आज लिखते हुए भी आँख भर रही है ...तुमसे दूर हर शाम मेरे लिए बहुत उदास होती थी .....मैं हर रात को तुम्हे यादकरते हुए रोती थी ...क्यूँ पता नहीं ...ऐसा कोई दुःख नहीं था पर फिर भी ...तुम्हे ये सब पता नहीं होगा ...मैंने तुमसे कभी कहा ही नहीं ...तुम्हे पता नहीं होगा ना ...मुझे बार -बार बुखार हो जाता था ...मियादी बुखार जो महीनों तक चला....कुछ दिनों के अंतर से ...मुंह में इतने छाले कि पानी तक गटका नहीं जाता था ...मौसम बदलते ही सर्दी -जुखाम , खांसी इतनी अधिक की खांस खांस कर अंतड़ियाँ दुखने लगती थी ...तुम अब जब किसी को कहती हो कि इसका तो कभीसर भी नहीं दुखा मुझे हंसी आ जाती है ...तुम्हे कहाँ पता है मां ...बुखार से लाल तपते चेहरे के साथ चुपचाप चद्दर ओढ़कर लेटे अपने सर पर तुम्हरे हाथों के स्पर्श के कमी को मैंने कितना महसूस किया ...मेरी आदत ही नहीं रही अपनीतकलीफ किसी को कहने की ....कोई किसी काम से कमरे में आये और असमय लेटे हुए देखकर पूछ ले तो जाने कि बुखार है ...वरना अपना सा मुंह लेकर पड़ी रहूँ ...
तुम्हरी गोद से इतनी जल्दी दूर होने के कारण कहीं गहरे भीतर बहुत नाराजगी रही मुझमे इसलिए ही हर ममतामयी स्त्री में अपनी माँ का ही अक्श ढूंढती रही ....मगर जब मैं खुद दो बच्चों की मां बनी तो समझ पायी , तुम्हरे लिए 6 बच्चोंकी परवरिश कितनी मुश्किल रही होगी ना ...
पिता और बच्चों के बीच की तुम एक महत्वपूर्ण कड़ी रही हो ...उन्हें कुछ कहना होता तो तुमसे ही कहते थे हम ...सीधे -सीधे उनसे अपनी बात कहने का साहस तो हममे से किसी के पास नहीं था ...
और पीछे जाती हूँ ...दादाजी की आवाज़ सुनते ही दरवाजे के पीछे खड़ी थर- थर कांपती आंसुओं में भीगी तुम...तब से अब में क्या फर्क आया है ...तुम्हे रुलाना और डराना आज भी किसी के लिए मुश्किल नहीं है ...जानती हो मां ...तुम्हेइतना रोते और डरते देखा है कि अब तुम्हारे आंसुओं का खास असर नहीं होता ...मैं जानती हूँ कठोर हो गयी हूँ मैं ये कहते हुए ...मगर सच तो यही है ...तुम्हारी भावुकता से अब मुझे सहानुभूति नहीं होती , गुस्सा आता है ...
कितने भावुक हो तुम ....किसी का रोना , दुखी होना तुमसे देखा नहीं जाता ...और तुम्हारी इस भावुकता का सभी फायदा उठाते रहे हैं ...तुम्हारे सभी रिश्तेदार तुम्हारे अपने बच्चे भी ...सच कहूँ तो मैं भी ....
तुम अत्यधिक भावुक हो और इसी भावुकता को अपने बच्चों में भी देखना चाहती हो और उन्हें ऐसा नहीं पाकर उदास और दुखी हो जाती हो ...भावनाओं की इस प्रकार कठपुतली बने देखकर मुझे शादी से ही नफरत हो गयी थी ...मेरे शादी नहीं करने के ऐलान के हजार बहाने लोगों के पास रहे होंगे , मगर असली वजह सिर्फ मैं ही जानती हूँ ...फिर जब लगा कि शादी तो करनी ही होगी तो ये ठान लिया था कि मैं तुम्हारे जैसी नहीं बनूँगी ...मुझे कोई रुला नहीं सकेगा ...ना पति , ना बच्चे , ना रिश्तेदार ... और एक वादा अपने आपसे भी कि अपने बच्चों को अपने से कभी दूर नहीं करुँगी .....मैं खुशकिस्मत रही कि पति ने मेरा साथ हर कदम पर दिया और उनकी व्यवहारकुशलता ने मेरी भावुकता को संतुलित रखने में मेरी पूरी मदद की ...भावुक हूँ मैं भी बहुत मगर अपनी भावुकता का किसी को फायदा उठाने नहीं देती ...मैं सिर्फ उन लोगों की मदद करना चाहती हूँ जो वाकई मदद के हकदार हैं , स्वाभिमानी हैं ...लालची नहीं हैं ...जानती हूँ इस कोशिश में मैं कभी -कभी बहुत कठोर हो जाती हूँ ...मैं क्या करूँ माँ ...मुझे तुम्हारे जैसा नहीं बनना है ...
मगर माँ सच कहूँ ...मैं लाख कहूँ कि मैं तुम्हारे जैसी नहीं बनना चाहती हूँ ...मगर हर स्त्री , हर माँ भीतर से एक जैसी ही होती है, जबतक वे किसी विशेष दुखमय परिस्थिति से नहीं गुजरे ...ममतामयी , दूसरों के दुःख को महसूस करने वाली , किसी के भी आँख के आंसू देखकर पिघल जाने वाली ...बस समय रहते संभल जाती हूँ ...तुम्हे भी यही कहना चाहती हूँ , दूसरों (तुम्हरे बच्चे , रिश्तेदार , कोई भी )की हद से ज्यादा मदद कर के तुम उनसे भी ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद कर दुखी मत रहा करो ...तुम्हे उदास देखकर मन बहुत उदास हो जाता है ....तुम्हारा जो तुम्हारे पास है , सिर्फ तुम्हारा है ...तुम्हे किसी की दया , सहानुभूति की जरुरत नहीं है ...अपने लिए संघर्ष करो , अपनी अस्मिता के लिए , अपने आत्मसम्मान के लिए ...सबसे ...मुझसे भी ...
पहली बार तुम्हे ख़त लिखा और वो भी इतना बड़ा ...कितना कुछ लिख दिया , मगर मेरे भीतर बहुत कुछ अनकहा बच गया है ...फिर कभी किसी दूसरे ख़त में ...
तुम्हारी बेटी जो तुम्हारे जैसा होने से डरती है
वाणी शर्मा
साधारण गृहिणी ...पढने का अत्यधिक शौक और कभी कभी लिख लेने का प्रयास हिंदी ब्लोगिंग तक ले आया है ...
ब्लाग : ज्ञानवाणी और गीत मेरे.........
माँ,
ReplyDeleteमैंने तुमसे बहुत प्यार किया है,
और माँ,
मैं इस प्यार में जीती हूँ
दिल से निकले यह शब्द ...भावमय कर गये,
वाणी जी और नीलिमा जी के खत ....मां के नाम ...भावुक कर गये ...प्रस्तुति के लिए आभार ।
क्या कहू '' माँ ' तो ''माँ '' ही है !
ReplyDeleteकविता और दोनों खत बहुत कुछ कह गए ...शायद माँ होती ही भावुक हैं ...कठोर से कठोर हृदय वाली माँ भी कब मोम बन पिघल जाये नहीं कहा जा सकता ...बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteपूरी पोस्ट भावुकता से पूर्ण है ,कुछ कहने को शब्द नहीं हैं बस महसूस कर सकती हूँ
ReplyDeleteबहुत प्रभावी पोस्ट
आज ख़त लिखने बैठी हूँ तुम्हे ...कुछ सूझ नहीं रहा कहाँ से लिखना शुरू करूँ ..आज से पहले तुम्हे कभी कोई पत्र लिखा नहीं मैंने , लिखने की जरुरत नहीं समझी ...क्यूँ ? पता नहीं ...शायद तुम पढ़ नहीं सकती थी ...या फिर शायद इसलिएकि मां को पत्र लिखने की जरुरत क्या है ...मां तो यूँ भी सब जानती है ...बिना कहे , बिना सुने ..."
ReplyDeleteएक अजीब कशिश भरी रचना जो जीवन चक्र की परिधि भी दर्शाता है और मन की दशा भी.
माँ,
ReplyDeleteमैंने तुमसे बहुत प्यार किया है,
और माँ,
मैं इस प्यार में जीती हूँ....
कविता और खत दोनों ही इतने भावपूर्ण हैं कि कुछ भी लिखना संभव नहीं है. इसकी केवल कसक ही महसूस की जा सकती है...माँ की याद ने आज फिर भावुक कर दिया...बहुत भावमयी प्रस्तुति..आभार
माँ पर ना जाने कितनी बातें कही गई हैं.. कितने ख़त लिखे गए हैं.. लेकिन कहाँ पूरी होती है माँ की बातें.... कविता और ख़त दोनों ही बेहतरीन.. भावुक.. मर्मस्पर्शी...
ReplyDeleteमाँ के नाम बेटियों का बहुत ही प्यारा पैगाम है...
ReplyDeleteमैम आप तो हमेशा ही बहुत प्यारा लिखतीं हैं...
प्रार्थना करूंगी कि नीलिमा जी की माँ की तबियत जल्द ठीक हो जाये...
और वाणी जी की बहुत-सी बातों से मैं सहमत हूँ... और शायद मुझे भी आज समझ आ गया कि मैं अपनी जैसा बन्ने से डरती हूँ...
आप तीनों को हार्दिक धन्यवाद...
ये जो मन कहीं उदास हो गया ...
ReplyDeleteये जो आँख बरबस गीली हो गई ...
क्या आज भी मन बच्चा है मेरा ?
या फिर मुझे माँ की याद आ गई ?
ये वो है जिस पर मैं युगों तक कह सकता हूँ,
ReplyDeleteये वो है जिस पर मैं कई युगों तक सुन सकता हूँ..
ये वो है जिस पर मेरे अनंत मौन मुखरित हैं....
नत!
लोग जीत गए माँ,
ReplyDeleteमेरा मिसरीवाला घर तोड़ गए
adbhut shabd is dard ke liye ..........
khat baad me padhenge itminaan se .
वाणी जी के ख़त ने तो आँखे ही नम कर दी और माँ की उपस्थिति ही महसूस करवा दी जन्हें ५ साल हुए है अलग हुए पर अभी लगता है उनके पल पल साथ होने से हम दोनों एक ही हो गये |
ReplyDeleteआभार
कविता और दोनो खतों ने निशब्द कर दिया………………जैसे सारी भावनायें एक जगह इकट्ठी हो गयी हों और हर भावना दूजी पर हावी हो रही हो और मै उसे पकड नही पा रही शायद्……………बस इतना ही
ReplyDeleteमाँ सिर्फ़ माँ होती है
जो हर औरत मे छिपी होती है
माँ तो माँ होती है ... बहुत भावमयी प्रस्तुति ... आभार
ReplyDeleteमां पर केन्द्रित सभी रचनाएं सुन्दर हैं!
ReplyDeleteऐसी ही होती हैं ’मां’
ReplyDeleteरश्मि जी, आपके लेखन के जादू के बारे में एक दोस्त से काफ़ी देर तक चर्चा हुई है.
नीलिमा जी और वाणी जी के पत्र भी अलग अहसास जगा गए.
इस बार जज़्बात Jazbaat पर भी मां को लेकर कुछ लिखने का मन बना लिया है.
bahut bahut shukriyaaa un sab ka jinhone bhi is khat mai apni maa ko dekha ya khud ko ............ bas itna kahoongi k ...................maa hokar hi jana maine apni maa ka dard maine .......... aaj bhi lafz nhi milte apni dil ki bat bataoo unko kaise .......... neelima ..rashmi maine aaj bhi aansoo bahaye maa ki yaad mai .... is khat ko parhkar ...... kai din hue maa se bat nhi hui ...... pata nhi kitni sanse hai ..... lekin awaz mai unki aaj bhi wahi khanak ....... k mai thik hu tum apna khyal kyo nhi rakhti ...... tere bachche kon dekhega ........ par MAAAAAAA tujhe kuch ho gya to hamko kon dekhega .... ham to aaj bhi man se bachche hai .........
ReplyDeletesach mei in patro ko padhte padhte aakho mei aansu aa gaye, apni maa ki yaad bhi aai , maa ka dard maa ban jane ke baad hi mehsus kiya ja sakta hai us se pehle nahi
ReplyDeleteek shabd "maaa"
ReplyDeleteteen alag alag ahsaas.. jo khud maa hain:)
abhaar:)