जिसे खेलते हैं सिर्फ रावण
दिल पर रखकर हाथ कहोरश्मि प्रभा
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परिचय तो हमारा कुछ है नहीं ...
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परिचय तो हमारा कुछ है नहीं ...
या यूँ कहिये की कभी जरुरत ही नहीं पड़ी लिख भेजने की..
बस इतना जान लीजिये की एक अदना सी जान का २७ मार्च १९६९ को उज्जैनी में जन्म हुआ..
ताज्जुब की बात तो ये है के उस साल उसी दिन रामनवमी पड़ी..
माँ कान्यकुब्ज परिवार से आई थी और पिताजी महाराष्ट्रियन थे तो इस जान की गफलत बनी रही कि वो क्या है..
मम्मी-पापा ने १५ मई १९६८ को ज़माने से विद्रोह कर शादी की थी सो विद्रोह इस जान को विरासत में मिला..
इस जान की स्कूली शिक्षा बुरहानपुर के एक कॉ
न्वेंट स्कूल में हुई..
बचपन से ही खेल-कूद, संगीत और नृत्य में इस जान की रूचि थी...
पढाई तो बस ज़माने को खुश करने के लिए की जाती थी..
अव्वल कभी नहीं रही ये नन्ही सी जान पर कभी दोयम दर्जे की भी ना रही..
खेलने-कूदने के शौक़ ने व्यक्तित्व को और जुझारू बना दिया जिसकी ताकीद माँ-बाप ही नहीं स्कूल और कॉलेज के सारे शिक्षक भी करेंगे..
हालाँकि उनके शब्दों का चयन कुछ इस तरह का होगा :
बदतमीज़ था..
अकडू भी और झगडालू भी..
हद दर्जे का जिद्दी और हार तो जैसे बर्दाश्त ही नहीं थी..
केरम के खेल में कोई रानी ले जाए तो रोने लगते थे महाशय..
इत्यादि-इत्यादि..
पिताजी का स्थानांतरण भोपाल हुआ और वहीँ के मोतीलाल विज्ञान महाविद्यालय से डिग्री प्राप्त की..
किसी ने कहा MBA कर लो तो अपने राम उसकी तैय्यारी में जुट गए..नतीजा सिफ़र ही रहा
फिर किसी ने कहा B Pharmacy कर लो..पर नतीजा वही सिफ़र
अंग्रेजी ठीक-ठाक थी सो अंग्रजी साहित्य में MA करने लग पड़े..
प्रीवियस में ही थे की पिताजी ने कहा जाकर एक दवा कंपनी में साक्षात्कार दे आओ तो दे आये..
ग़ज़ब ये के उन्होंने इस जान को पसंद भी कर लिया और इस तरह दवा प्रतिनिधि बन ये जान फिर बुरहानपुर जा पहुंची..
६ महीने इस छोटी सी कंपनी में दिल लगाकर काम किया तो बड़ी-बड़ी कंपनियों के ऑफर आने लगे..
मजा आ रहा था सो बहुत सोच-समझकर एक अपने जैसी सोच-समझ वाली कंपनी को ज्वाइन कर लिया..
पोस्टिंग हुई सागर में..
ये १९९१-९२ की बात है..
१९९६ तक वही बने रहे और ट्रेड यूनियन में भी सक्रिय होते गए..
फ़रवरी १९९६ में स्वेच्छा से स्थानांतरण ले पैतृक संपत्ति की देख-भाल हेतु उज्जैन आ गए..
नवम्बर १९९६ में स्वेच्छा से कुमारी मेघना पागे जी से विवाह हुआ..
मेघना जी और पिताजी की मदद से मार्च १९९९ में ही शहर में वेव्स म्यूजिक शॉप का उदघाटन हुआ जो आज उज्जैन में एक प्रतिष्ठित संस्था है और असली संगीत/फिल्मो की cd/mp3/vcd/dvd मिलने के एकमात्र स्थान के रूप में जानी जाती है..
२००३ में ही ओशो की वाणी से परिचय हुआ..
बागियों को बागी तेवर वाले संत ही पसंद आते हैं..
वे ही बागी को प्रेमी भी बना देते हैं..
उस प्रेम ने जो भी शब्द लिए वो आपके सामने हैं..
कुछ manisbadkase.blogspot.com पर तो कुछ हमारी डायरियों के पन्नो में..
रही बात तस्वीर की तो बड़ी उलझन में हूँ रश्मि जी की तस्वीर अपनी भेजूं या रावण की..??
एक काम करता हूँ दोनों की ही
भेजे दे रहा हूँ...बात तो एक ही है ना..
आपकी रूचि के लिए एक बार फिर धन्यवाद..
manish badkas
सदियों से तो जलता आया है ये रावण...
पल-पल फिर भी पनपता आया है ये रावण...
इस बार १०२ फीट का जलाकर भी देख लिया, न मरा,
जाने किस मिटटी का बना है ये रावण..!!
हर साल चला आता है अपने दस-दस मुहँ उठाये,
नाभि पे लगे तीरों से भी अब तो उबर चुका है ये रावण..!!
कभी हुआ करता होगा ये बुराई का प्रतीक,
अब तो अच्छाई पर बुराई की जीत का प्रतीक है ये रावण..!!
उधर राम सारे अटके पड़े हैं जन्म-भूमि विवाद में,
इधर अपनी तादाद और शक्ति बढ़ाता
नहीं..नहीं, इस रावण की नहीं है जात कोई,
हर एक में एक समान विचरता है ये रावण..!!
मैं भी रावण, ये भी रावण और हाँ.. तुम भी रावण,
रावणों की भीड़ देखो जला रही लंकापति रावण..!!
देख ये तमाशा बच्चे पीट रहें हैं ताली,
सीख रहे पहला ये सबक के कभी ना मरता है ये रावण..!!
जिंदा रहता है वो हम सब के कर्मों में,
बौने राम पर अट्ठाहस लगाता है ये रावण..!!
जागो राम अब जागो तुम..!
के तुम्हारे ही पराक्रम से धाराशायी होगा ये रावण..!!
कुछ मत करो..बस हर कदम तुम होश से उठाओ,
देखें अगले बरस किस तरह फिर खड़ा होता है ये रावण..!!
दशरथ-पुत्र राम से नहीं तुम से कहता है 'मनीष',
मार गिराओ मुझको के.,
मैं ही रावण, मैं ही रावण, मैं ही रावण....!
() मनीष
बहुत सार्थक और सच्ची रचना ....मन के रावण को कोई नहीं मारता
ReplyDeletebahut hee saarthak aur praasangik hai yah rachanaa, sachmuch raavan kabhi nahee marataa ....yah hamaaraa bhram hai ki ravan marataa hai !
ReplyDeleteसुन्दर रचना / कविता सार्थक सोच के साथ और उस से भी सुन्दर आपका परिचय का तरीका ..वाह .. सो परिचय वाला लेख भी सुन्दर ..और स्माइली भी सही टाँकें है |
ReplyDelete्बहुत ही सटीक और सार्थक रचना।
ReplyDeleteintroduction jitna fuljharidhar tha , kavita utni hi sanjidi!
ReplyDeletebhetreen prastuti
असली सफाई तो मन की होनी चाहिये ....मन की बुराइयों को मारना ही ज्यादा जरूरी ......
ReplyDeleteRashmi ji!
ReplyDeleteरावण मरता नहीं क्योकि हमारा(हिंदी)ज्ञान कमजोर है, मिलावट और घालमेल के युग में हम 'रावण' को भी 'वरण' पढ़ लेते हैं. फिर जब मान ही लिया तो यथा नाम तथा गुण. अब सोने की लंका बनायेंगे वह सारा अनर्थ कर दलेंदे जो कभी रावण ने किया था. हम आप यही तो कर रहे हैं. भले ही माँ बाप ने नाम रखाहो राम या श्याम. जब तक हमने जिसका वरण किया है उसकी पहचान और समीक्षा, मूल्यांकन, स्वमूल्यांकन नहीं करेंगे, स्व का वध नहीं करेंगे यह रावण मरने वाला नहीं है. उसकी नाभि में अमृत है. हमारी नसों में वह विचार और संस्कार बन कर दौड़ रहा है.अपना सुधार परिष्कार करो, रावण के पीछे मत भागो.
bahut hi sundar tareeke se ek sakhsiyat se parichay aur sundar kavita ke liye bahut bahut aabhar..
ReplyDeleteकविता से ज्यादा परिचय का तरीका पसंद आया।
ReplyDeleterachna aur achnakaar ka rachnaatmak parichay dono behad pasand aaya. bahut shubhkaamnaayen.
ReplyDeleteबहुत भावुक! ज्यादा पसंद इसलिए भी आई क्योकि हम भी बुरहानपुर से है.
ReplyDeleteजिंदा रहता है वो हम सब के कर्मों में,
ReplyDeleteबौने राम पर अट्ठाहस लगाता है ये रावण..!!
vaah ....bahut khub