पूछकर देखो
कोई रौशनी नहीं
बस सूनी आँखें दिखेंगी
सुनाई देगा एक मौन
या विस्मित आँखें कहेंगी
'अमां तुम किस वतन के हो
किस दीए की बात करते हो?
क्या उसकी शक्ल रोटी सी होती है
क्या उस दिन सारे गिले शिकवे
उंच नीच
शोषण , अन्याय ख़त्म हो जाता है
क्या उस दिन महलों से निकलकर लोग
भूखों के साथ आतिशबाजी करते हैं
क्या सच में अयोध्या नगरी दीपों से जगमगाती है
या फिर आतिशबाजी के नाम पर
कोई जानलेवा धमाका होता है?
रश्मि प्रभा
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दिवाली क्या है
दिवाली क्या है
ये उनसे क्यों पूछते हो जिनके घर भरे हैं ..
उनसे पूछो
जो मुश्किल से ये दिन ख़तम करते हैं ..
.उनसे पूछो
जिनके घर नए कपड़ों की बौछार नहीं होती
जिनके घर पटाखे नहीं आते
जिनके घरो में घी के दीए नहीं जलते..
जिनके पापा घर पर देरी से आते है..
कि बच्चो का सामना ना करना पड़े..
और बच्चे जल्दी सो जाते हैं झूठमूठ ..
कि मम्मी पापा को बुरा ना लगे..
जिनके घर में मिठाई नहीं आती..
जिनके घर पे ५० रुपया का तोरण नहीं बंधता.
जिनके घर कोई आता भी नहीं ..
पर फिर भी सब एक दुसरे के साथ मुस्कराते हैं
जैसे कुछ हुआ ही ना हो ..
नीता कोटेचा
बिल्कुल सही कह रही हैं………………दिवाली तो उनसे पुछो
ReplyDeleteजहाँ अभाव का डेरा होता है
और
आस का ना कोई सवेरा होता है
दर्द का बेहद मार्मिक चित्रण्।
Bahut marmsparshi rachna...
ReplyDelete..Deep ka andhera hisssa sach mein inke hisse mein aana behad dukhdayee hai...
kaash sabhi enke parti saarthak soch rakh paate!
Saarthak rachna ke liye aabhar.
Deep Parv Kee haardik shubhkamnayne
जैसे कुछ हुवा ही ना हो - दीपावली के दिन ऐसा सोचना .. बहुत गहरी सोच को और वस्तु विषय की गंभीरता को दर्शाता है.. बहुत सुन्दर रचना.. बधाई..
ReplyDeleteआपकि कविता सीधा मुझे उनके घर तक ले गयी .... गंभीर तथा भावपूर्ण
ReplyDeletechitra sajeev ho uthi!!!
ReplyDeletesundar prastuti!!!
अक्सर उन साधारण जीवनों का दुख दर्द हमारी चेतना की प्रवाहमान नदी का हिस्सा नहीं बन पाता, इसलिए कई बार हम अपने आस पास मौजूद उन अदृश्य संसारों के सुख दुख को महसूसने से चूक जाते हैं. दोनों कविताओं में संवेदनशील मन की बेहद संवेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
समाज में असमानता की ये भी एक विसंगति है...
ReplyDeleteबहरहाल...
सभी को दीपोत्सव की शुभकामनाएं.
aap sabhi ka ..jinko meri rachna pasand aai..un sabhi ka bahot bahot shukriya..
ReplyDeleteपता नही सब के जीवन मे नया सवेरा कब आयेगा। दोनो रचनायें बहुत अच्छी लगी धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना..
ReplyDeleteबहुत मार्मिक चित्रण किया है उन लोगों का जो सूरज कि रौशनी तो देखते हैं पर उसकी ऊष्मा उन तक नहीं पहुँच पाती है ...
ReplyDeleteअंत कि पंक्तियाँ मन को छू गयीं , "
पर फिर भी सब एक दुसरे के साथ मुस्कराते हैं
जैसे कुछ हुआ ही ना हो ..
...अनिता