चेतना की वर्तिका बन
मैं अहर्निश जलती हुई
ढूंढती रही अपना अस्तित्व .... बाहर बाहर
पर मेरी निष्ठा , मेरे दायरे , मेरा ममत्व
मेरी असीमित क्षमताएं ....
कस्तूरी की तरह मेरे अन्दर सुवासित रहे
अब कैसी तलाश ! - यही तो है अस्तित्व
रश्मि प्रभा
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खोजती रही मैं ..
अपने पदचिन्ह
कभी आग पर चलते हुए
तो कभी पानी पर चलते हुए
खोजती रही मैं ..
अपनी प्रतिच्छाया
कभी रात के घुप्प अँधेरे में
तो कभी सिर पर खड़ी धूप में
खोजती रही मैं ..
अपना परिगमन -पथ
कभी जीवन के अयनवृतों में
तो कभी अभिशप्त चक्रव्यूहों में
खोजती रही मैं..
अपनी अभिव्यक्ति
कभी निर्वाक निनादों में
तो कभी अवमर्दित उद्घोषों में
खोजती रही मैं ..
अपना अस्तित्व
कभी हाशिये पर कराहती आहों में
तो कभी कालचक्र के पिसते गवाहों में
हाँ ! खोज रही हूँ मैं ........
नियति और परिणति के बीच
अपने होने का औचित्य ....
हाँ ! खोज रही हूँ मैं ........
ReplyDeleteनियति और परिणति के बीच
अपने होने का औचित्य ....
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
सुन्दर भावो की शानदार अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteहाँ! कस्तूरी की महक से ही तो अंदाजा लगाना है कि कितना शुद्ध है..
ReplyDeleteAmut ke saman hi hei apki rchna amrata !
ReplyDeleteसुन्दर भावो की शानदार अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteहाँ ! खोज रही हूँ मैं ........
ReplyDeleteनियति और परिणति के बीच
अपने होने का औचित्य ....
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ... अस्तित्व की खोज सार्थक हो ..
ReplyDeleteखुबसूरत भाव....
ReplyDeleteek sartak prashn ...khoobsoorat bhav deta hua ...
ReplyDeleteयही खोज हमें अलग करती हैं, सृष्टि के बाकि क्रिअचर्स से. ये हमारा सौभाग्य भी हैं और गहन पीड़ा भी.
ReplyDeleteये खोज बहुत ज़रूरी है...
ReplyDeleteखोज रही हूँ मैं ........
ReplyDeleteनियति और परिणति के बीच
अपने होने का औचित्य ....
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पर मेरी निष्ठा , मेरे दायरे , मेरा ममत्व
मेरी असीमित क्षमताएं ....
कस्तूरी की तरह मेरे अन्दर सुवासित रहे...
वाह!!
अमृता तन्मय जी की खुबसूरत कविता को आपने बड़ी खूबसूरती और सशक्त ढंग से आगे बढाया दी...
अमृता जी और आपको सादर बधाई...
वाह अमृता जी बेहद खूबसूरत !!!
ReplyDeleteअमृता जी की कविता बहुत सुन्दर है
ReplyDeleteऔर आपके शब्द सत्य मायने देने वाले हैं
सुन्दर रचना