अगर बमुश्किल था
बगैर पशुओं के
बगैर झंडों के
मिट्टी-गारे में जिंदा रहना
तब वसंत का प्रवेश
नदी में पत्थर की तरह
आदमी के रुप में
जीवन के इतने झंझावत
कैसे सहे जा सकते हैं ।

निःसंदेह आदमी
मछली पकड़ने की नाव बनने से रहा
और निचली सतह की मिट्टी सा
जो भी चीजें
बाजार में ठेल दिया जाए
सही आकार का चोर
सभी दुकानों के बीच से
उड़ाने की ताक लिए बैठा है ।

वापस आकर उतनी ही गहराई से
बीजों को परिभाषित करना
अब उतना सहज नहीं रह गया है
जब खालिस पत्थरों ने
नदियों को ढंक दिया हो
जीवंत हवा के कुछ चिथड़े
अपना अस्तित्व खो दिया हो
और चारागाह की निर्जन शांति
कोल्हू के बैल बन गये हों ।

लगता है कि
संभावनाओं के ऊंचे शिखर पर
इस तरह हम कहीं नहीं जा सकते
चाहे तमाम प्राकृतिक चीजों के बीच
बची रहे खामोशी की मीनारें ।

* मोतीलाल
परिचय - नाम - मोतीलाल/जन्म - 08.12.1962/शिक्षा - बीए. राँची विश्वविद्यालय संप्रति - भारतीय रेल सेवा मेँ कार्यरत प्रकाशन - देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग 200 कविताएँ प्रकाशित यथा - गगनांचल,भाषा, मधुमति, साक्ष्य, अक्षरपर्व, तेवर, संदर्श, अभिनव कदम, उन्नयन, संवेद, अलाव, आशय, पाठ, प्रसंग, बया, देशज, अक्षरा, साक्षात्कार, प्रेरणा, लोकमत, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, हिन्दुस्तान, नवज्योति, भास्कर, जनसत्ता आदि । कुछ कविताएँ मराठी में अनुदित । इप्टा से जुड़ाव । संपर्क - विद्युत लोको शेड, बंडामुंडा, राउरकेला - 770032, ओडिशा/मोबाईल - 09931346271

7 comments:

  1. बस दौडे जा रहे हैं हम बिना सोंचे विचारे ..
    अच्‍छी रचना लिखी है आपने

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  2. बहुत अच्छी पोस्ट....
    आपके ब्लॉग पर आकर काफी अच्छा लगा।मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत हैं।अगर आपको अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़ें। धन्यवाद !!

    http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/10/blog-post.html

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  3. बेहद भाव प्रणव अभिव्यक्ति ...
    सादर शुभ कामनाएं !!

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