लघु कथा
दर्पण, आइना या शीशा जो भी कहे, आख़िर किस काम
आता है ? ये भी क्या सवाल हुआ ! चेहरा देखते हैं सब। स्त्री हो या पुरुष अपना चेहरा संवारने के लियें सबको
इसकी ज़रूरत पड़ती है। जवानी मे ये
ज़्यादा ही काम आता है। आमतौर पर आइना स्नानघर और ड्रैसर मे ही लगाया
जाता है।
पिछले कई सालों
से आइने का प्रयोग वजह बेवजह कुछ अधिक ही
होने लगा है। मौल के कौरिडोर मे,
बड़े बड़े शोरूम की दीवारों पर, सीढ़ियों पर
बड़े बड़े मंहगी किस्मों के चमचमाते शीशे लगे रहते हैं, पता ही नहीं चलता कि सामने वाला दाँई
ओर से आ रहा है या बाँई ओर से। कहते हैं कि शीशे लगा ने से स्थान बड़ा नज़र आता है,
मै तो कहूँगी कि बड़ा क्या पूरा दो गुना नज़र
आता है। साड़ी की दुकान मे आप साड़ियाँ
देख रहे होंगे सामने पुतले साड़ी पहने सजे होंगे बहुत सी साड़ियां फैला कर
सजाई गई होंगी अगर आपके पीछे वाली दीवार
पर पूरा शीशा ही लगा होगा तो ऐसा भ्रम होगा
मानो जितना सामान दुकान मे सामने है उतना ही पीछे की ओर सजा है और उतने ही ग्राहक बैठे हैं,तो हो गया न दोगुने का भ्रम
!
अब तो शीशे लगाने
का रिवाज घरों मे भी चल पडा है, जिनके घर छोटे हैं वो घर बड़े दिखाने का भ्रम
पैदा करना चाहते हैं। बड़े मकानों वाले लोग शायद मकान को हवेली दिखाने
का भ्रम पैदा करने का प्रयत्न करते है।घरों की सीढ़ियों पर कमरों की किसी दीवार पर
या कभी बाल्कनी या
बरामदों मे भी बड़े बड़े शीशे लोग लगाने
लगे हैं। इससे एक फ़ायदा और भी है
कि घर के लोग भी और महमान भी आते
जाते अपना चेहरा देखलें और ज़रूरत हो तो संवार लें।
आइनों के भ्रमजाल
मे कई लोग भ्रमित हो जाते हैं, मै भी हुई हूँ,
पर मेरी मित्र शारदा को साथ एक नहीं दो बार
आइनो की वजह से अजीब सी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।एक बार वो अकेली ही
कपड़ों की ख़रीदारी के लियें एक नये शोरूम
मे गईं।आरंभिक डिसकांउट चल रहा था। भीड़
भी थी ही। काफ़ी ख़रीदारी करली, बिल बन गया। पेमैंट काँउटर पर ही कपड़ो के थैले मिलने थे।
काउंटर पर पंहुचकर उन्होने बिल और क्रैडिट कार्ड सामने बैठे व्यक्ति की
ओर बढ़ाया। पास मे बैठा हुआ व्यक्ति
बोला ‘’मैडम मै इधर बैठा हूँ,’’ असल मे शारदा को भ्रम हो गया था कि काउँटर पर
दो व्यक्ति बैठे हैं, जबिकि था केवल एक ! दूसरा तो उसका ही प्रतिबिम्ब था जिसकी ओर शारदा ने बिल और क्रैडिट कार्ड
बढ़ाये थे। शारदा के मन की क्या स्थिति हुई होगी बताने
की ज़रूरत है क्या ?
- बीनू भटनागर
जन्म ०४ सितम्बर १९४७ को बुलन्दशहर, उ.प्र. में हुआ। शिक्षा: एम.ए. ( मनोविज्ञान, लखनऊ विश्वविद्यालय) १९६७ में। आपने ५२ वर्ष की उम्र के बाद रचनात्मक लेखन प्रारम्भ किया। आपकी रचनाएँ- सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी, माधुरी, सृजनगाथा, स्वर्गविभा, प्रवासी दुनियाँ और गर्भनाल आदि में प्रकाशित। आपकी कविताओं की एक पांडुलिपि प्रकाशन के इंतज़ार में हैं। व्यवसाय - गृहणी। सम्पर्क: ए-१०४, अभियन्त अपार्टमैंन्ट, वसुन्धरा एनक्लेव, दिल्ली, - ११००९६
जन्म ०४ सितम्बर १९४७ को बुलन्दशहर, उ.प्र. में हुआ। शिक्षा: एम.ए. ( मनोविज्ञान, लखनऊ विश्वविद्यालय) १९६७ में। आपने ५२ वर्ष की उम्र के बाद रचनात्मक लेखन प्रारम्भ किया। आपकी रचनाएँ- सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी, माधुरी, सृजनगाथा, स्वर्गविभा, प्रवासी दुनियाँ और गर्भनाल आदि में प्रकाशित। आपकी कविताओं की एक पांडुलिपि प्रकाशन के इंतज़ार में हैं। व्यवसाय - गृहणी। सम्पर्क: ए-१०४, अभियन्त अपार्टमैंन्ट, वसुन्धरा एनक्लेव, दिल्ली, - ११००९६
barhia post...:)
ReplyDeleteजो भी हो यह लघुकथा तो कतई नहीं है।
ReplyDeleteLAGHU KATHA PASAND AAYEE HAI .
ReplyDeleteआइना झूठ नहीं बोलता...शायद इस लिए आदमी अपने इर्द-गिर्द आइनों के ताने-बाने बन रहा है...अपने इस बढ़ती प्रवृति को सही ऑब्जर्व किया है।
ReplyDeleteआईने कभी सच नहीं बोलते।
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