भीड़ में खुद की तलाश
कभी पूरी नहीं होती
भीड़ तो बस भीड़ है
जब भी कोई ख्याल उभरता है
भीड़ में गुम हो जाता है
रश्मि प्रभा
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इसी भीड़ में...
थोड़ी उंचाई पर जब,खड़ा होता हूँ मैं.
दिखती हैं मुझे, रेंगती सी भीड़.
जानवरों की नहीं,
तथाकथित मानवों की.
वह भीड़ जिसकी अपनी कोई मंजिल नहीं.
न ही कोई दिशा.
एक दूसरे से टकराती ज़िन्दगी
एक दूसरे से आगे निकलने की होड़.
मानव से ही संघर्ष करता मानव.
सोचता हूँ कभी,
क्या यही नियति हैं?
जन्म और मृत्यु के बीच सिर्फ संघर्ष ?
एक होड़, अपनों से, अपनों के बीच?
भीड़ कई प्रश्न छोड़ जाती हैं मुझ पर,
परन्तु उत्तर नहीं बताती.
मेरी सरल आत्मा उत्तर मांगती है ,
भीड़ कहती हैं उत्तर शब्दों में निहित नहीं है
आओ, और शामिल हो जाओ मुझ में तुम भी.
बनो मेरा हिस्सा और गुजरो प्रसव पीड़ा से.
क्योकि हर भीड़ में कुछ बुद्ध उत्तर पा जाते हैं.
फिर वे भीड़ से अलग हो जाते हैं.
जैसे कीचड़ में खिल जाये कोई कमल...
तुम्हे भी यही करना होंगा.
हाँ, मैं भी हूँ अब शामिल इसमें
अनिच्छा से ही सही, लेकिन संघर्ष करता हुआ अपनों से.
जीता जा रहा हूँ मैं निरंतर,
नदी के बहाव में तिनके की तरह.
कि कभी तो मिलेगा उत्तर
और जान पाउँगा, आखिर कौन हूँ मैं.
लेकिन तब तक मुझे भी इसी भीड़ में जीना है
हाँ, इसी भीड़ में.............................
राहुल पालीवाल