शनिवार, 8 मार्च 2008


उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा के अवरोधी



रूपसिंह चन्देल
मार्च,८ को महिला दिवस के रूप में मनाया गया. अमेरिका की विदेश मंत्री कोण्डालिसा राइस ने कहा कि भारत के विकास में वहां की महिलाओं का विशेष योगदान है. योगदान तो निश्चित है, लेकिन योगदान करने वाली महिलाओं का प्रतिशत कितना है! क्या कारण है कि महामहिम राष्ट्रपति को यह कहना पड़ता है कि हमारे यहां विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या बहुत कम है. केवल विज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं, प्रबन्धन आदि अनेक क्षेत्रों में यह कमी विचारणीय है. 

आई.आई.एम. में छात्राओं की संख्या दस प्रतिशत के आंकड़े पार नहीं कर पाते. आई.आई..टी आदि संस्थानों की स्थिति भी ऎसी ही है. कारण बहुत स्पष्ट हैं. समाज में अस्सी प्रतिशत लोगों की सोच लड़कियों को लेकर अठारहवीं शताब्दी वाली ही है. किसी प्रकार अधिक से अधिक स्नातक तक शिक्षा दिलाकर विवाह कर देने तक. इसमें एक पहलू विवाह को लेकर उत्पन्न होने वाली स्थितियों से भी जुड़ता है. अधिक शिक्षिता लड़की के लिए कम से कम उतना शिक्षित वर चाहिए ही और शिक्षित लड़कों की कीमत चुका पाने की क्षमता सामान्य आदमी में नहीं होती. अर्थात दहेज-दानव का निरंतर फैलता जबडा़ लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलाने की आकांक्षा रखने वाले अभिभावकों को हतोत्साहित करता है और समाज (जो कि सदैव दकियानूस ही रहा है) की चिन्ता करने वाले लोग अपनी लड़कियों के स्वैच्छिक चयन को बमुश्किल ही स्वीकार कर पाते हैं. हलांकि इस दिशा में स्थितियां बदल रहीं हैं, लेकिन संख्या नगण्य ही है. लड़कियों के उच्च शिक्षित होने के लिए समाज की सोच को बदलने की आवश्यकता है.

हमारे समाज में हजारों इंदिरा नूयी और कल्पना चावला हैं, लेकिन उन्हें अवसर नहीं मिल पा रहे. इसके लिए अभिभावक जितना दोषी हैं, सरकार- व्यवस्था उससे अधिक दोषी हैं. जब उच्च-शिक्षा की बात आती है, राजनीति और अफसरशाही अपने वास्तविक रूप में दिखाए देते हैं. इसका एक ज्वलंत उदाहरण प्रबंधन संस्थानों में होने वाले सरकारी हस्तक्षेप के रूप में सामने आया. दूसरा रूप देखने को तब मिला जब विदेशी विश्वविद्यालयों ने उच्च शिक्षा के लिए भारत में अपने कैंपस स्थापित करने के प्रस्ताव किए, लेकिन राजनीतिक विरोध के कारण सरकार को उनके प्रस्ताव ठुकराने पड़े. आश्चर्यजनक रूप से विरोध करने वाले वे राजनैतिक लोग थे जो प्रगतिशीलता का दावा करते हैं , लेकिन प्रगति पथ पर अवरोध उपस्थित करने में वे ही सबसे आगे थे. यदि विदेशी विश्वविद्यालय अपने कैंपस यहां स्थापित करने में सफल होते तो जिस शिक्षा को प्राप्त करने के लिए हमारे छात्रों को अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन आदि देशों में जाना पड़ता है वह उन्हें कम शुल्क में अपने ही देश में उपलब्ध हो जाती. कितने अभिभावक हैं जो अपने प्रतिभाशाली बच्चों को विदेश भेज पते हैं ! अर्थाभाव के कारण लाखों प्रतिभाओं को अपनी उच्च शिक्षा की आकांक्षा को दबाना पड़ता है. 

हार्वर्ड और येल जैसे विश्वविद्यालयों के कैंपस खुलने से न केवल लड़कों को लाभ मिलने वाला था बल्कि लड़कियों की दिशा-दशा में भी परिवर्तन होता. आज हमारे देश के अस्सी हजार छात्र अमेरिका और लगभग इतने ही आस्ट्रलिया में पढ़ रहे हैं. कारण जो भी हों, लेकिन विगत कुछ दिनों से वहां हमारे छात्रों को हिंसा का सामना करना पड़ रहा है.इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि हमारे यहां उच्च-शिक्षण सस्थानों की संख्या उच्च-शिक्षा पाने के आकांक्षी युवाओं के अनुपात में बहुत कम है. ऎसी स्थिति में विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस स्थापित करने से उस कमी की पूर्ति किसी हद तक संभव थी. लेकिन रतनैतिक विरोध और अफसरशाही के चलते वह संभव नहीं हो पाया. एक तथ्य यह भी है कि विरोध करनेवालों के अपने बच्चे उच्च -शिक्षा के लिए अमेरिका आदि देशों में जाते हैं, क्योंकि वे लाखों खर्च करने की क्षमता रखते हैं . 

विरोध करने वाले क्या इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि वे आम आदमी के प्रतिभाशाली बच्चों को, जो अर्थाभाव के कारण में विदेशों पढ़ने नहीं जा सकते, आगे आने से रोकना चाहते हैं और अपने बच्चों के लिए स्थान सुरक्षित रखना चाहते हैं. वास्तविकता यह भी है कि महिला सशक्तिकरण, महिला विकास और उच्च-शिक्षा के नारे अधिक लगाए जाते हैं, कार्यान्वयन कम किया जाता है.उच्च-शिक्षा के प्रति व्यवस्था की उदासीनता का एक उदाहरण और है. वर्षों से अमेरिका का सी.एफ.ए. इन्स्टीट्यूट (Chartered Financial Analyst Institute) भारते में अपनी परीक्षा आयोजित करता आ रहा था. लगभग सात हजार छात्र प्रतिवर्ष इस परीक्षा में बैठते हैं. यह एक अंतराष्ट्रीय स्तर का कोर्स है. लेकिन अवरोधकों ने इसके भारत में आयोजित होने का विरोध किया. यहां के एक विश्विद्यालय ने सी.एफ.ए. के विरुद्ध मुकदमा डाल दिया. 

मुकदमा कोर्ट में और विद्यार्थियों को परीक्षा के लिए श्रीलंका, नेपाल, सिगांपुर आदि पड़ोसी देशों में परीक्षा देने के लिए भागना पड़ रहा है.विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में कैंपस स्थापित करने का विरोध करने वालों को जानकारी अवश्य होगी कि चीन और मध्य-पूर्व एशिया के देशों ने बिना किसी हिचक के उन्हें अपने देश में कैंपस स्थापित करने की अनुमति दे दी है जबकि चीन को अपना रोल मॉडल मानने वाले अर्थात हर बात के लिए उनकी ओर देखने वाले हमारे राजनेता विरोध कर रहे हैं. वास्तविकता यह है कि चीन आदि ने विश्व-विकास की स्थिति को भलीभांति समझ लिया है, जबकि हमारे यहां के रजनीतिक और अफसर महज षडयंत्रों में जीने के आदी हो गये प्रतीत होते हैं. अतः जब उच्च-शिक्षा के लिए ही अवरोध उत्पन्न किये जा रहे हों तब लड़कियों की उच-शिक्षा के विषय में सोचा जा सकता है.

8 comments:

  1. लड़कियों के उच्च शिक्षित होने के लिए समाज की सोच को बदलने की आवश्यकता है.हमारे समाज में हजारों इंदिरा नूयी और कल्पना चावला हैं, लेकिन उन्हें अवसर नहीं मिल पा रहे. इसके लिए अभिभावक जितना दोषी हैं, सरकार- व्यवस्था उससे अधिक दोषी हैं.
    ... बिल्‍कुल सही कहा आपने
    आभार इस प्रस्‍तुति को पढ़वाने लिये
    सादर

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  2. समाज को अपनी सोच बदलनी ही होगी ,
    जाने कितनी प्रतिभाएं अनुकूल अवसर ,न
    मिल पाने से कुंठित हो जाती हैं ,ज़रूरी
    है सरकारें और समाज दोनों ही मिलकर काम
    करें ,इस सार्थक आलेख को प्रस्तुत करने
    के लिए ह्रदय से आभार |

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  3. बहुत सुन्दर आलेख, ज्ञान तो सदा ही बाटने से बढ़ता है, सबको मिले, सुलभ मिले।

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  4. बहुत बहुत खूब रूप जी . आपकी लेखनी के हम सभी कायल हैं .खूबसूरत आलेख .बधाई

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  5. बहुत बहुत खूब रूप जी . आपकी लेखनी के हम सभी कायल हैं .खूबसूरत आलेख .बधाई

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  6. JAANKARRIYON SE BHARPOOR LEKH KE
    LIYE VIDWAAN LEKHAK SHRI ROOP JI
    KO BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .

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  7. CFA का भारत में एक्जाम नहीं हो रहा है...यह नई जानकारी है मेरे लिए..

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  8. बहुत खूब
    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ ! सादर
    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    अर्ज सुनिये
    कृपया मेरे ब्लॉग का भी अनुसरण करे

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