वक्त की डोर से
वह उड़ाती है पतंग
अपने हाथोँ से
वह पकड़ना चाहती है तितलियाँ
और बहा देना चाहती है
अपने सारे आँसू
ठीक नाव की तरह

वह चाहती है बुनना कुछ सपने
सीप मेँ मोती की तरह
वह काटना चाहती है लहरोँ को
चप्पु की तरह
और चाहती है लहराना एक सादा झंडा अपने मन के देहरी पर

कुछ हाथ की लकीरेँ
कुछ माथे पर शिकन
और कहीँ
दामन मेँ लगे धब्बोँ को
वह पोँछ देना चाहती है
साफ दर्पण की तरह

वह देखना चाहती है
लाल-नीली चिड़ियोँ को
चहचहाते हुए
शांत बहती नदी को
अठखेलियाँ लगाते हुए
और गा लेना चाहती है
इस सदी का वह अंतिम गीत
अपने कोख को निहारते हुए
आकाश को ताकती हुई

इस अंतिम बेला मेँ
वह जान लेना चाहती है
मृत्यु से जन्म की दूरी
फल से जड़ मेँ लौटना
और बहा देना चाहती है
अपनी अंतिम इच्छा
उलटी बहती नदी मेँ

वह अच्छी तरह जानती है
इस टेढ़े समय मेँ
समय की डोर से
कितना मुश्किल है
पतंग उड़ाना
और पकड़ना तितलियोँ
जो हाथ जल चुकी है
रोटी सेँकती हुई चूल्हे से ।

* मोतीलाल/राउरकेला
* 9931346271

10 comments:

  1. वाह!क्या भाव प्रवाह है!
    कुँवर जी,

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  2. बेहतरीन भाव समन्वय

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  3. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति।

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  4. वाह: बहुत सुन्दर..

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  5. इस अंतिम बेला मेँ
    वह जान लेना चाहती है
    मृत्यु से जन्म की दूरी....सुन्दर भाव

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