मजबूरी कहें या औरत .... कौन समझता है , बात एक ही है !
वह बुढ़िया हो , सांवली, गोरी , सिहनी, मेमना , लोमड़ी हो .... क्या फर्क पड़ता है ...
रश्मि प्रभा
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चावलवाली
आज जिस चावल वाली का किस्सा सुनाने जा रहा हूँ उसका नाम है कृष्णा।
नहीं-नहीं ..... यह उसका सचमुच का नाम नहीं है, मेरा ही दिया नाम है, और यह नाम अपनी प्रथम भेंट में ही मैंने दे दिया था उसे।
पहले की भेंट और आज की भेंट में भी तो धरती-आसमान का अंतर हो गया है। प्रत्युत यह कहना ही अधिक उचित होगा कि पहले की और आज की कृष्णा में ही अंतर हो गया है। भेंट दोनो ही बार जिस नाटकीय ढ़ंग से हुयी उस पर स्वयम् मुझे भी कोई कम आश्चर्य नहीं।
बात सन् उनासी की है, विक्रमशिला एक्सप्रेस जब दानापुर में रुकी तो वहाँ से एक युगल गाड़ी में चढ़ा। महिला
मेरे निकट बैठ गयी और स्थान के अभाव में उसके साथ का व्यक्ति गाड़ी के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। जब गाड़ी चल पड़ी तो अनायास ही उस महिला की भुजंग भुजा के फन ने मेरे हाथ को स्पर्श किया। जब तक मैं चौंककर उसकी ओर देखूँ , वह हौले से झंकृत स्वर में बोल उठी - "चिन्हलीं कि ना बाबू साहेब?"
परंतु इस घटना को बताने से पूर्व साल भर पहले की उस घटना को बताना अधिक उपयुक्त रहेगा जब रात के गहन सन्नाटे को चीरती हुयी अमृतसर-हावड़ा एक्सप्रेस भागी चली जा रही थी धड़धड़ाती हुयी और मैं अपनी ऊपर की शय्या पर अधलेटा सा आँखें मूँदे विचारमग्न था। अधिकाँश यात्री गपशप कर रहे थे, और कुछ भोजन के बाद नींद में डूबे हुये थे। तभी रेलवे पुलिस के एक सिपाही ने मेरा हाथ पकड़कर हिलाते हुये पूछा - "यह सामान आपका है?"
उसने नीचे रखी दो-तीन बोरियों की ओर इंगित किया । मैने अस्वीकृति में सिर हिला दिया।
उसने कई यात्रियों से पूछा, अंत में उन बोरियों के दावेदार को न पाकर खीझ उठा और ऊँचे स्वर में चिल्लाता हुआ बढ़ गया आगे की ओर।
परंतु शिकार की गन्ध पाकर भी उसे प्राप्त किये बिना ही छोड़ देना पुलिस वालों के वश की बात नहीं। थोड़ी ही देर में वह पुनः लौट आया, पर इस बार अकेला नहीं, अपने तीन-चार साथियों के साथ आया था । सभी मिलकर खोज अभियान में जुट गये। पर चावल की उन बोरियों को इधर-उधर छिपा, उन्हें लावारिस सा छोड़ उनका स्वामी न जाने कहाँ बड़ी निश्चिंतता के साथ अलोप हो गया था। पुलिस वालों की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी। तभी एक झटके के साथ गाड़ी आरा स्टेशन पर रुकी। एक चतुर सिपाही ने अपने साथियों को निर्देश दिया- "जिसका भी सामान हो, खींचकर नीचे फेक दो।"
उसकी यह युक्ति काम कर गयी। ज्यों ही उसका साथी बोरियाँ खीचकर नीचे उतारने का उपक्रम करने लगा त्यों ही एक शय्या के नीचे से गुड़ी-मुड़ी पड़ी, जगह-जगह से फटॆ चीकट वस्त्रों में लिपटी नरकंकाल सदृश प्रेतिनी सी बाल छितराये काली-कलूटी एक बुढ़िया गिड़गिड़ाने लगी उठकर - "छोड़ दीं मालिक! हमरय ह।"
पुलिस वाला बोरी छोड़ अब तक का सारा क्रोध बुढ़िया के बाल अपने हाथ में पकड़ झकझोरते हुये उतारने लगा- "सिटिया के हेटे ढुकल रहलू ह, का सोचले रहलू के ना मिलबू त छोड़ देब? बोल जल्दी कय गो बा?"
"तीन गो बा हाकिम।" - बुढ़िया गिड़गिड़ायी।
पुलिस वाला गरजा - "अभिये पता चल जाई"
उसने बुढ़िया की केशराशि खूब कस कर झकझोरते हुये उसे गाड़ी की फर्श पर लुढ़का दिया। बुढ़िया रोने लगी तो उसे छोड़ वह टॉर्च लेकर सीट्स के नीचे छिपी बोरियाँ गिनने लगा, "एक...दू....तीन...चार....आठ...नौ। नौ गो बा, चल निकाल अठारह गो रुपया।"
बुढ़िया फिर गिड़गिड़ाने लगी। अंत में उससे तीन रुपये ही खसूटकर बदले में भद्दी-भद्दी गालियों का आशीर्वाद देता हुआ वह भक्षक नर-पिशाच दल किसी दूसरे शिकार की खोज में वहाँ से चलने का उपक्रम करने लगा। तभी उनका एक साथी चिल्लाया, " ए हो उपधिया ! नौ गो नईं खे , पूरा पन्द्रह गो बा हो ।"
बुढ़िया सफाई देने लगी-" हमार त खाली नौ वे गो बा हाकिम, ई कउनो दूसर के होई। हमार ना ह।"
"ई हमार ह" - एक मधुर ध्वनि आयी एक ओर से।
मैने लक्ष्य किया, वह एक कृष्णवर्णी युवती थी। शौचालय की दीवाल से अपनी पीठ टिकाये, अल्हड़ता से उन्नत उरोजों पर डाले गये आँचल के खिसकने की कोई परवाह किये बिना वह निर्भीक सिंहनी सी अपनी दूधिया दंतपंक्ति को काले मेघों के बीच चमकती चपला सदृश चमका रही थी। कृष्णवर्णी होते हुये भी वह गज़ब की आकर्षक थी, इसलिये नहीं कि वह युवती थी, बल्कि उसके नाक-नक्श ही सचमुच बड़े तीक्ष्ण थे।
" अच्छा, त तोर ह ! निकाल बारह गो ....दे जल्दी कर।" - उपाध्याय ने उसे आदेश दिया।
"पइसा त हइये नई खे।" - युवती ने अपनी लम्बी काली अंगुलियाँ नचाते हुये बड़ी निश्चिंतता से उत्तर दिया।
परंतु तभी अनायास ही एक अप्रत्याशित घटना घट गयी। हुआ यह कि दूसरे सिपाही ने आगे बढ़कर युवती का सिर शौचालय की दीवाल से कसकर दे मारा फिर तड़ातड तीन-चार झापड़ उसके गालों पर जड़ते हुये गरजना शुरू कर दिया- "निकाल साली पइसा, ज़ल्दी कर ...तहार माई के ....।"
माँ की गाली सुनते ही युवती शेरनी सी तड़प कर झपट पड़ी सिपाही पर । इस अप्रत्याशित वार से वह संतुलन नहीं बना सका और गिर पड़ा। फिर जब तक वह उठे-उठे तब तक युवती ने उसके गालों पर अपने हाथों से लेन-देन बराबर कर दिया।
देश के रक्षकों को निर्धन श्रमिकों का निर्ममता से रक्त चूसते देख जो मेरा रक्त अब तक उबल रहा था उसे मानो कुछ शांति सी मिली। फिर मामला बढ़ न जाय इसलिये मुझे उतर कर नीचे आना पड़ा। मुझे पुलिस वालों से उलझते देख कुछ और भी लोग उठकर आ गये वहाँ , फिर तो उन नर-पिशाचों पर इतने शब्दाघात हुये कि निर्लज्ज खिसियाती हँसी हँसते खिसकना ही पड़ा उन्हें वहाँ से।
गाड़ी आरा स्टॆशन छोड़ बहुत आगे निकल चुकी थी, लोगों की गपशप का विषय भी बदल चुका था। कोई प्रशासन का पोस्टमार्टम कर रहा था तो कोई गर्त में जा रहे देश के भविष्य के प्रति चिंतातुर हो उठा। कुछ अभी भी युवती की प्रशंसा के पुल बाँधे जा रहे थे। और सच कहूँ, कुछ लोग तो बार-बार चोर दृष्टि से उसके गदराये यौवन को आँखों ही आँखों में पी जाने की भरसक चेष्टा में रत हो उठे थे।
गाड़ी दानापुर में फिर रुकी। कुछ नये सिपाही चढ़ आये डिब्बे में। इस बार बुढ़िया ने भी प्रयास नहीं किया छिपने का। एक सिपाही युवती के पास जाकर पैसे माँगने लगा तो उसने स्पष्ट मना कर दिया । इस पर उसके साथी ने युवती की ओर ललचाई दृष्टि से निहार निर्लज्ज मुस्कराहट के साथ कहा - " ई काहे देगी ...कहो उल्टा हमियें से बसूल ले ....का हो छम्मक छल्लो , ठीक कहतनी नू!"
युवती पहले तो खड़ी मुस्कराती रही फिर बड़े ही अभिनय से कहने लगी- " ए सिपाई जी! तनीं सुनीं ...अवरी से होस मं बतिअइह हमरा से।"
सिपाही खिल्ल-खिल्ल करता बुढ़िया की ओर बढ़ चला। अभिनयपटु बुढ़िया ने उसे अपनी ओर आता देख रोना शुरू कर दिया । फिर कमर में खोंसी हुई मैली सी थैली निकाल उसकी रेजगारी फर्श पर उलट कर बोली-
"सब त लेइये लेहलन अब का बचल, एतनये गो बा अबहीन त खानओ ना खइलीं, भूखे मरब जा आज। ले ल, तु हूँ ले ल।"
परंतु हाय निर्धन की आशा ! पुलिस वालों को उसके इस अभिनय पर तनिक भी दया न आई। दस-दस और पाँच-पाँच के सिक्कों के मध्य एकमात्र पड़ी चवन्नी पर अपनी सारी नैतिकता और मानवीयता न्योछावर कर उसे अपनी पतलून की जेब में रखता हुआ वह आगे बढ़ गया। बुढ़िया अपनी भग्न आशा के दुःख में वहीं चीख मारकर पसर गयी और पहले से भी अधिक तेज रोने लगी।
युवती जो अभी तक सारा दृष्य मौन हो देखती रही थी आगे बढ़कर बुढ़िया को चुप कराने लगी। निर्बल को निर्बल पर दया आ गयी पर जो सबल हैं ...समर्थ हैं ...प्रभु हैं उन्हें दया न आयी। जो स्वयम् ही दया का पात्र है उसे ही दया आ गयी दूसरे पर ।
इस रेल पथ पर मेरा पूर्व की भाँति आना जाना होता रहा। इस बीच चावलवालियों और पुलिस वालों की तू-तू मैं-मैं का भी अच्छी तरह अभ्यस्त हो गया। पुलिस वाले हर बार की तरह उनपर अत्याचार करते और फिर कुछ न कुछ ले लिवाकर ही जाते वहाँ से। चावलवालियाँ हर बार की तरह लुटती रहतीं। सभी कुछ पूर्ववत ही चलता रहा। हाँ ! एक परिवर्तन अवश्य हुआ, और वह यह कि उस कृष्णायुवती के दर्शन फिर कभी नहीं हुये मुझे। वह बुढ़िया तो कई बार मिली , और भी चावलवालियाँ मिलती रहतीं, बस वही भर नहीं मिलती। एक दो बार मन में आया भी कि उस मरियल बुढ़िया से पूछूँ कभी, पर सोच कर ही रह गया, पूछा कभी नहीं। उसके अलोप हो जाने के रहस्य के प्रति उत्सुकता बनी ही रही मेरी।
किंतु एक दिन फिर अप्रत्याशित रूप से उस निर्भीक शेरनी ने ही चौका दिया था मुझे।
हुआ यह था कि एक आवश्यक कार्य से भागलपुर जाना पड़ा मुझे। गाड़ी दानापुर में रुकी तो एक युगल चढ़ा गाड़ी में , फिर कहीं बैठने का स्थान न देख साथ के पुरुष ने मेरे पास आकर कहा- "ए भाई जी! तनीं कष्ट करीं, हमरा के पटना तक जाय के बा, इनकरा के बइठालीं, हम ना बइठब।"
मैं चुपचाप एक ओर को खिसक गया। लम्बे से अवगुण्ठन वाली उसकी विवाहिता सी प्रतीत होने वाली महिला मेरे पास आकर बैठ गयी। पुरुष कुछ देर वहीं खड़े रहकर फिर द्वार के पास जाकर खड़ा हो गया।
गाड़ी चलने के कुछ देर बाद एकाएक उस अवगुण्ठन वाली महिला ने अपनी भुजंग भुजा के फन से मेरे हाथ को स्पर्श किया। जब तक मैं चौंककर उसकी ओर देखूँ , वह हौले से झंकृत स्वर में बोल उठी - "चिन्हलीं कि ना बाबू साहेब?"
स्वर पूर्व परिचित सा लगा, तुरंत पहचान गया, वही तो है ...अलोप हुई चावलवाली। परंतु उसे इस नये रूप में देख एक सुखद आश्चर्य हुआ मुझे ...किंचित कुछ विचित्र सा भी लगा। परंतु इसमें न तो कोई आश्चर्य वाली बात थी, न कोई विचित्रता।
मैने कहा -"पहचानता कैसे, इतना लम्बा घूँघट जो डाल रखा है।"
वह हँस पड़ी, फिर मेरी ओर मुँह कर क्षण भर को घूँघट उठा सिन्दूर भरी माँग और चमकती दंतपंक्ति की एक झाँकी दिखा पूर्ववत् घूँघट डाल कर बैठ गयी। बोली - "रोज चलने वाले चीन्हते हैं न! हमरा के लाज आवेला ..एही से घूँघट कढ़नी हं।"
चावलवाली कृष्णा क्षण भर चुप रह स्वतः ही गम्भीर हो पुनः कहने लगी- " आप उस दिन हमरे लिये केतना लड़े थे पुलिस वालों से। कौन लड़ता है किसी के लिये। अब आपको का बतायें, रात-बिरात अकेला औरत का गाड़ी में चलना एतना आसान नहीं न है। रोज-रोज पुलिस वालों से चख-चख ...और फिर तरह-तरह का पसिंजर लोग ...सब आपका जइसा नहीं न होता है। हम तंग आ गये थे ......तब का करते ............एक दिन बिक गये हम।"
"क्या?" एक बार फिर चौंका दिया कृष्णा ने मुझे।
"हाँ! बाबू साहेब यह बिकना नहीं तो और क्या है....सादी कहते हैं इसे?"
कृष्णा की आवाज़ में हृदय की पीड़ा स्पष्ट झलक रही थी। वह फिर कहने लगी- "वो .....उस दिन.... वही साहेब जो गाली दिया था हमको .....मारा था हमको ......वही है साहेब।"
मुझे और भी आश्चर्य हुआ। भला उस अधेड़ सिपहिया से विवाह रचाने की क्या विवशता रही होगी उसकी?
शंका निवारण भी उसी ने किया - "उसका पहली औरत मर गयी .....इधर-उधर मुँह मारता रहता था ...बहुत दिन से नज़र था हम पर। रोज-रोज तंगाता था हमको .....ओही नहीं ...न जाने केतना लोग पड़ा था पीछे। कहाँ तक बचती....किस-किस से बचती। अंत में हार गये हम, ओह कीन लिया हमारा आत्मा को .......हम भी कह दिये ...हम गरीब हैं तो क्या पर पतुरिया नहीं हैं ...इज़्ज़त से घर ले जाओगे तो चलेंगे।....हमरा माई-बाबू ना नू रहे साहेब ..सादी बिहा कौन करता ? औरत का मज़बूरी को कौन समझता है साहेब? ...."
मैने अनुभव किया, उसकी आवाज़ काँपने ही नहीं लगी बल्कि भीगती भी जा रही थी। उसके अन्दर का हाहाकार हिलाये दे रहा था मुझे। मैने देखा, वह आँचल के छोर से अपनी आँखें पोंछ रही थी।
पटना आ गया था, उसका पति आ पहुँचा -"चल उठ, पटना आ गइल।"
चलते-चलते इतना कह गयी - "यहीं सैदपुर में हैं साहेब...मैला टंकी के पास...कभी अपना चरन से हमरा घर भी पबित्र करियेगा .....आइयेगा ज़रूर ..."
उसने ज़ल्दी-ज़ल्दी पता बताया अपना और एक बार फिर झकझोर कर चली गयी मुझे।
अभी तक कुल मिलाकर वह चावलवाली दूसरी बार मिली थी मुझे ...पर लगा जैसे कि कई बार मिल चुकी है।
बनारस की ओर से पटना की ओर आने वाली गाड़ियों में ये चावलवालियाँ भाड़े की श्रमिक होती हैं । इनका मालिक कोई और होता है, अवैध रूप से, रेलवे को किराया दिये बिना चावल के परिवहन के लिये निर्धन महिलाओं को नाममात्र का पारिश्रमिक दिया जाता है । पेट की आग जो न कराये। न जाने कितना अपमान, कितनी प्रताड़ना और कितने तरह के समझौतों के कंटीले जंगल से होकर गुजरना पड़ता है इन्हें।
अब, जब भी कभी किसी चावलवाली को देखता हूँ तो मुझे उसी कृष्णा की स्मृति हो आती है। और उसके ये शब्द मुझे अन्दर तक भिगो जाते हैं - " ......तब का करते ............एक दिन बिक गये हम। .......हार गये हम, ओह कीन लिया हमारा आत्मा को .......औरत का मज़बूरी को कौन समझता है साहेब?"
कौशलेन्द्र
bahut acchee maarmik kahaanee| .
ReplyDeleteझकझोरती विवशताएँ!! पर शेरनी के गुण शान्त हो सकते है मिटते नहीं।
ReplyDeleteमार्मिक संस्मरण - हें ऐसे ही जीवन जीती हैं , ये मजबूरी की मारी - कभी कोई मिल गया तो घर बस गया और नहीं तो घर घर में बस कर उजडती रहती हैं. नारी के जीवन के एक ये रंग भी है लेकिन बदरंग सा .
ReplyDeleteदिल को छू गया आपका ये लेखन.
गरीब बेचारी कृष्णा की बेबसी पर आखें नम हो गई!...ऐसी कितनी ही कृष्णाएं सिर्फ जिन्दा रहने के लिए संघर्ष करती होंगी!
ReplyDelete...बहुत अच्छी और मार्मिक कहानी!
मार्मिक कहानी!... continue writing
ReplyDeleteअंत तक बांधकर रखा।
ReplyDeleteयह सच्चाइयाँ हैं...जो देश के अलग-अलग कोनों में अलग-अलग रूप में बिखरीं पड़ीं हैं...व्यवस्था द्वारा निर्बल का शोषण...
ReplyDeleteयह सच्चाइयाँ हैं...जो देश के अलग-अलग कोनों में अलग-अलग रूप में बिखरीं पड़ीं हैं...व्यवस्था द्वारा निर्बल का शोषण...
ReplyDeleteएक सच जो अंतस को झकझोर कर रख देता है ... आभार
ReplyDeletekai dino baad marmik kahani padhi.acchi lagi hai...
ReplyDeleteबड़ेखूबसूरत अंदाज में लिखा है आपने
ReplyDeleteमन के हर कोने तक पहुची ..........पर क्या किया जाए ....समस्या सदियों से यूँ ही चली आरही है अनवरत ...सपना देखती हूँ शायद कभी हम इतने परिष्कृत हो जाएँ ................