मेरे आगे मैं दौड़ पड़ी हूँ विंडो सीट के लिए
ट्रेन चल पड़ी है - छुक छुक छुक छुक
हवाएँ पलकों को फरफराने लगी हैं
होठों पर गीत मचलने लगे हैं
कई बार छिलके समेत मूंगफली खा लिया है
यह मासूम खेतों से आगे भागनेवाला बचपन
बहुत प्यारा था !
रश्मि प्रभा
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ट्रेन का सफ़र
याद है
जब तुम छोटे थे
ट्रेन में सफ़र करने का शौक बस शुरू ही हुआ था
कैसे विंडो सीट के लिए झटपट भागते थे
ट्रेन स्टेशन छोडती, स्पीड पकड़ती
और तुम्हारी नज़रें जम जाती खिड़की से बाहर
पहले प्लॅटफॉर्म गुज़रता, फिर शहर
दूर तक निगाहों में तेज़ हवा और खेत के खेत समाते जाते
कभी जंगल आता, कभी छुट पुट कोई स्टेशन
तुम बाहर ही देखते रहते
खिड़की के बाहर की दुनिया पीछे भागती हुई मालूम पड़ती
होड़ ही होड़ में पेड़, सर पर पैर रख दौड़ लगाते
स्कूल बस के लिए जैसे सुबह भागते थे तुम
और पीछे से माँ टिफिन लिए दौड़ी चली आती थी
वैसे ही कुछ इधर पेड़ों के पीछे से पहाड़ दौड़े आते
मानो कह रहे हों, "अरे रुक बेटा लंच-बॉक्स तो लेता जा!"
कभी कभार अलसाए-अजगर सी नदी आती, लेकिन वो भी सरकती जाती
और खेत, खेतों में स्प्रिंक्लर, स्प्रिंक्लर से फुदकती पानी की फुहार
उन के बीच में हरी फसल से लंबी ऊगी एक झोपड़ी भी
सबके साथ भागती जाती
तुम्हारी नज़रें उसपर टिकी रहतीं, जब तक वो ओझल ना हो जाती
कुछ मंज़र छूटते, तो कुछ नये और आँखों में आते
पर रुकते नहीं, हमेशा चलते जाते, फिसलते जाते
और फिर..
तुम्हारा स्टेशन आ जाता
तुम्हे लगता कि सब कुछ कितनी जल्दी गुज़र गया
झोपड़ी, शीशम-नीम-आम के पेड़, नदियाँ, खेत, पहाड़, स्प्रिंकलर्स और वो वक़्त
सब कितने जल्दी कहाँ चले गये पता ही नहीं चला
लेकिन अभी तुम्हारी मासूम साँसों को अंदाज़ा नहीं है
कि वो कहीं नहीं गये, वहीं हैं..
बस तुम ज़रा आगे निकल आए हो..
आदि
आपने तो सच में मेरे बचपन की याद दिला दी| जब में आपने दादा के घर पर जाता था तो ट्रेन से यात्रा करनी होती थी और ट्रेन कि विंडो सीट पर बैठने की इच्छा होती थी पर मेरे पापा जी मना करते थे और ऊपर वाली सीट पर सुला देते थे और मेरी नजर उसी विंडो पर रहती थी
ReplyDeleteजी मेल पर अपना नया अकाउंट कैसे बनाएँ
यही है ज़िन्दगी
ReplyDeleteरेल यात्रा के अनुभवों पर लिखी एक सुंदर कविता.
ReplyDeleteआभार.
bahut sundar...apna bachpan yaad aa gaya..
ReplyDeleteShukriya mere shabdon ko naya maadhyam dene ke liye. Aabhari hoon.
ReplyDeleteबढिया एहसासात की रचना ,वो दिन वो बातें अब कहाँ अब हम खुद ही आगे आगे भागते हैं फिर भी छूट जातें हैं पीछे ...ट्रेन भी राजधानी हो गई है बाहर झाँक नहीं सकते शीशे जापानी हो गए हैं .....सपने अमरीकी ...
ReplyDelete......वीरुभाई परदेसिया .४३,३०९ ,सिल्वर वुड ड्राइव ,कैंटन ,मिशिगन ४८ ,१८८
मन को भाते सरल ,सहज bhav सुन्दर बन पड़े हैं जी ,बहुर -२ शुभकामनायें .....
ReplyDeleteलेकिन अभी तुम्हारी मासूम साँसों को अंदाज़ा नहीं है
ReplyDeleteकि वो कहीं नहीं गये, वहीं हैं..
बस तुम ज़रा आगे निकल आए हो..
सुन्दर अहसासों से भरी रचना
कल रेल पर गाये गानों को देख रहा था, अब रेल पर बनाये गीतों को पढ़ रहा हूँ..
ReplyDeleteवो कहीं नहीं गये, वहीं हैं..
ReplyDeleteबस तुम ज़रा आगे निकल आए हो..
बहुत खूब ... बेहतरीन प्रस्तुति।
waah kalpna nd yaadon ka anokha sangam......
ReplyDeleteज़िन्दगी का सफर ऐसे ही निकल जाता है।पीछे मुड कर देखो तो ज़िन्दगी पीछे छूट गयी होती है हम ट्रेन के दरवाजे पर लटके हुये होते हैं। अच्छी रचना बधाई
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