सागर तो हूँ ..
मगर सतह मरूस्थल सी है
और तासीर उस रेगीस्तान जैसी..
जो प्यासा है प्यार के लिए..
मै तुम से दूर रह कर
खुद को भुलाये रहता हूँ ..
उमड़ते सागर की
कल-कल करती लहरों सा
लोगों की भीड़ में
सवयं को उलझाये रहता हूँ .
मगर पाता हूँ जब भी
तुम्हे अपने करीब..
भूल जाता हूँ सीमायें
बिखर जाता हूँ ,
छुपा लेना चाहता हूँ खुद को
तुम्हारे दामन में.
पिघला देना चाहता हूँ ..
जर्द पड़ी दीवारों की
बर्फ को..
गरम सांसो की महक में..
मुक्त होना चाहता हूँ ..
कुछ पलों के लिए
विषाक्त, छीछ्लेदार
जिंदगी की केंचुल से
मै जानता हूँ तुम्हारी सीमाये
मगर अनियंत्रित हो जाता हूँ
तुम्हारे सानिध्य में
तुम्हारे करीब आने की आकांक्षा
उदिग्न हो जाती है
और मन आत्म -समर्पण
में डूब जाता है.
मनः स्थिती की
इस यात्रा से गुजरता हुआ
मै खो देता हूँ
खुद के आत्म-बळ को
शरमिंदा हूँ मैं स्वयं से
जो प्रेम लोलुपता में फंसा
भूल जाता हूँ तुम्हारी बेबसी .
आज में पश्चाताप में डूबा हूँ ..
अपनी क्षुद्रता के लिए
क्षमा याचना भी नही कर सकता
डूबा हूँ अपने ही अहम में..
और कुचला जा रहा हूँ ..
खुद-ब- खुद ही
अपने संताप के पहियो में.
हो सके तो
मुझे क्षमा करना..
![My Photo](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLcFmtJnc-ZJW3K4JPhXRjxpp0GmA8bvZ7ZpkDS5zShiiLbbjrgxJt4A8kfU6sXpXBuj4A_JCo2fl_YJq8TNpg_-TbZuyaHNex3Q2jZUpDNT67EmSqygldWtQUYg_ywrv1HuS7KRm0h08/s220/164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_n_thumb%255B1%255D.jpg)
अनामिका
http://anamika7577.blogspot.in/
साधु-साधु
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति,भावपूर्ण.
सहज अभिव्यक्ति प्रवाहमय सुन्दर रचना....
ReplyDeleteवाह ... बेहतरीन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एवं सशक्त अभिव्यक्ति ! क्या कहने !
ReplyDeleteपिघला देना चाहता हूँ ..
ReplyDeleteजर्द पड़ी दीवारों की
बर्फ को..
गरम सांसो की महक में..
सागर भी रेगिस्तान भी ...
बहुत खूब
behad umda prastuti
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