चहरे की भाषा पढ़ना तो
वक्त शायद सबको ही सिखा देता है
लेकिन उसे पढ़ने के लिए
कम से कम चहरे का
सामने होना तो ज़रूरी है !
लेकिन क्या मीलों दूर के
फासलों के साथ
महज़ ख्यालों में ही
किसीके चहरे का तसव्वुर कर
उस पर लिखी तहरीर को
पढ़ा जा सकता है ?
कोई कैसे जान सकता है
कब उमंग से छलछलाती,
व्यग्रता से उठती गिरती
पलकों के नीचे शनै: शनै:
हताशा की बदली घिर आती है
और आँखों से सावन भादों की
झड़ी बरसने लगती है !
कब चहरे पर छाई
मृदुल स्मित की स्निग्ध रेखा
विद्रूप की रेखा में
विलीन हो जाती है और
प्रिय मिलन की आस से
सलज्ज रक्ताभ चेहरा
अवश क्षोभ की आँच से तप
अंगार की तरह सुर्ख हो जाता है !
कब मन की हर कोमल भावना
प्रियतम तक पहुँचाने को आतुर
अधरों की कँपकँपाहट धीरे-धीरे
निराशा के आलम में
रुलाई के आवेग की थरथराहट में
तब्दील हो जाती है
जिसे काबू में लाने के लिए
दाँतों का सहारा लेना पड़ता है !
फिर कैसे उदासी की
अपनी पुरानी चिर परिचित
पैबंददार चादर को ओढ़
चहरे पर मौन का मुखौटा पहन
आँखों को बाँहों से ढके
वह तकिये की पनाह में जाकर
इस बेदर्द बेरहम दुनिया से
बहुत दूर चले जाने का भ्रम
मन में पाल लेती है
और सबसे विमुख हो
अपने अतीत की वीथियों में
गुम हो जाती है !
इतने लंबे फासलों के साथ
क्या इस अनुभव को
जिया जा सकता है ?
क्या चहरे पर हर पल
बदलती इन इबारतों को
पढ़ा जा सकता है ?
बहुत सुन्दर उत्क्रष्ठ प्रस्तुति साधना जी की रविन्द्र प्रभात और साधना जी दोनों को बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव संयोजन्।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर......
ReplyDeleteसादर
क्या चहरे पर हर पल
ReplyDeleteबदलती इन इबारतों को
पढ़ा जा सकता है ?
रूबरू होना तो जरूरी ही है
बहुत सुन्दर एहसास
चेहरे पर हर पल बदलती इबारतों को पढना इतना आसान नहीं !
ReplyDeleteसुन्दर भाव संयोजन
ReplyDeleteसुन्दर रचना...
:-)
सुंदर रचना...
ReplyDeleteसुंदर भाव...
bahut acche se piroya hai bhavon ko panktiyon men .....
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण कविता के लिए बधाई |
ReplyDeleteआशा
वटवृक्ष के लिए मेरी रचना को आपने चुना आपकी आभारी हूँ ! सभी पाठकों का शुक्रिया प्रतिक्रिया के लिए !
ReplyDeleteफ़ासलों के बावजूद जो दिल के करीब होते हैं उनके चेहरे शायद पढे जा सकते हैं ...
ReplyDeleteसुंदर रचना
अतीत की वीथियों में गुम होकर जिंदगी की इबारत को पढ़ना.
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति साधना जी.