जब भी स्त्री जीवन की
काली अँधेरी राहों से
बाहर आना चाहती है
नई राह खोजती है
रोशनी की नन्ही किरण के लिये
बस --हंगामा हो जाता है
देवी को महिमामंडित
सिंहासन से उतार फेंकते हैं
पवित्र ---अपवित्र ---दो शब्द
बेध कर रख देते ---
स्त्री के हर्दय को
यही दो शब्द थे ---जिसने
अहिल्या को पत्थर बनाया
क्यूं नहीं समझते ----
--हमारी मर्यादा हमारा सम्मान
हमारे अपने लिये है --------
--विवाह स्वर्ग में बना जन्मो का बंधन नहीं
मन का बंधन हैं ---प्रेम का बंधन हैं ---
नहीं स्वीकार है वस्तु बनाना -----
- -धुर्वस्वामिनी धन्य है
कायर पति द्वारा शकराज को उपहार में
दिये जाने का प्रतिकार --------
प्रतिकूल परस्तिथियों में सहनशक्ति की पराकाष्ठा
अंत मे एक चीत्कार -----एक प्रश्न -----
--आखिर ये निर्णय होना ही चाहिये -----
मै कौन हूं --क्या एक वस्तु ?? ----
--कायर पति का परित्याग -
--विवाहित जीवन की मर्यादा का कठोरतम पालन
पर स्वतंत्र होने के पश्चात चन्द्रगुप्त का वरण ---
क्या प्रसाद की धुर्वस्वामिनी आदर्श नारी नहीं
अगर है तो उसका उदाहरण क्यूं नहीं ?
पर काश हर धुर्वस्वामिनी को चंद्रगुप्त मिले -----
माना की मौन सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हो सकता है
पर वह स्वतंत्र सक्षम मौन ---
----लाचार असमर्थ दयनीय मौन नहीं ----
तुम्हें पता नहीं ऐसा मौन जब टूटता है
संबंध दरक जाते है ---नीवें हिल जाती है
इसीलिए तो कहा न ---हमें सुनो समझो
हमारा मन तो पढ़ो ----खुल कर जीने दो
हमारी इच्छा अनिच्छा का भी मतलब समझो
जिसे प्रेम करते है उसे जी भर याद तो कर सके
काल्पनिक जगत में विचरने में भी पाबंदी
कलम चली अगर हमारी ---तो कितनी भृकुटियां टेड़ी
आखिर क्यूं ---मत करो ऐसा --समझो सोचो --
अभी तो अस्तित्व को बचाने को जूझती ये नारी
ये समय है कोख में समाप्त होता अस्तित्व बचाने का
आने वाला समय व्यक्तित्व का ---
अस्तित्व --व्यक्तित्व ---और हम --
आने वाला समय हमारा ही होगा
दिव्या शुक्ला
divyashukla.online@gmail.com
काली अँधेरी राहों से
बाहर आना चाहती है
नई राह खोजती है
रोशनी की नन्ही किरण के लिये
बस --हंगामा हो जाता है
देवी को महिमामंडित
सिंहासन से उतार फेंकते हैं
पवित्र ---अपवित्र ---दो शब्द
बेध कर रख देते ---
स्त्री के हर्दय को
यही दो शब्द थे ---जिसने
अहिल्या को पत्थर बनाया
क्यूं नहीं समझते ----
--हमारी मर्यादा हमारा सम्मान
हमारे अपने लिये है --------
--विवाह स्वर्ग में बना जन्मो का बंधन नहीं
मन का बंधन हैं ---प्रेम का बंधन हैं ---
नहीं स्वीकार है वस्तु बनाना -----
- -धुर्वस्वामिनी धन्य है
कायर पति द्वारा शकराज को उपहार में
दिये जाने का प्रतिकार --------
प्रतिकूल परस्तिथियों में सहनशक्ति की पराकाष्ठा
अंत मे एक चीत्कार -----एक प्रश्न -----
--आखिर ये निर्णय होना ही चाहिये -----
मै कौन हूं --क्या एक वस्तु ?? ----
--कायर पति का परित्याग -
--विवाहित जीवन की मर्यादा का कठोरतम पालन
पर स्वतंत्र होने के पश्चात चन्द्रगुप्त का वरण ---
क्या प्रसाद की धुर्वस्वामिनी आदर्श नारी नहीं
अगर है तो उसका उदाहरण क्यूं नहीं ?
पर काश हर धुर्वस्वामिनी को चंद्रगुप्त मिले -----
माना की मौन सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हो सकता है
पर वह स्वतंत्र सक्षम मौन ---
----लाचार असमर्थ दयनीय मौन नहीं ----
तुम्हें पता नहीं ऐसा मौन जब टूटता है
संबंध दरक जाते है ---नीवें हिल जाती है
इसीलिए तो कहा न ---हमें सुनो समझो
हमारा मन तो पढ़ो ----खुल कर जीने दो
हमारी इच्छा अनिच्छा का भी मतलब समझो
जिसे प्रेम करते है उसे जी भर याद तो कर सके
काल्पनिक जगत में विचरने में भी पाबंदी
कलम चली अगर हमारी ---तो कितनी भृकुटियां टेड़ी
आखिर क्यूं ---मत करो ऐसा --समझो सोचो --
अभी तो अस्तित्व को बचाने को जूझती ये नारी
ये समय है कोख में समाप्त होता अस्तित्व बचाने का
आने वाला समय व्यक्तित्व का ---
अस्तित्व --व्यक्तित्व ---और हम --
आने वाला समय हमारा ही होगा
दिव्या शुक्ला
divyashukla.online@gmail.com
बेहतरीन...सशक्त रचना.....
ReplyDeleteआभार.
प्रतिकूल परस्तिथियों में सहनशक्ति की पराकाष्ठा
ReplyDeleteअंत मे एक चीत्कार -----एक प्रश्न -----
--आखिर ये निर्णय होना ही चाहिये -----
मै कौन हूं --क्या एक वस्तु ?? ----
.....
nari ki vyatha ko bahut hi kareene se saja kar darshaya apne..
ek karun gatha..
par kya? jaise-jaise duniya badli hai... nari ki value bhi badhi hai.. !!
waise ek baat aur.. beshak aapka blog nahi hai.. par aapki rachna bahut bahut damdar hai.. aapko apna blog banana chahiye...!
बहुत सुंदर अभ्वय्क्ति .....
ReplyDeleteइस कविता को पढ़ता हूँ
ReplyDeleteतो
मस्तिष्क झनझना उठता है।
मैं सिर को झटक कर प्रवेश करता हूँ
विज्ञापन की मायावी दुनिया में
जहाँ
ख़ुद को बिकने से रोक नहीं पाती
वही नारी जो परहेज़ करती है
ख़ुद को वस्तु बनाने का निषेध करती है
पता नहीं क्यों
यह विरोधाभास फलता-फूलता है
हमारे-आपके-सबके सामने और
ख़ामोश है हर कोई।
मैं प्रतीक्षा में हूँ
जब कोई तोड़ेगा
इस भयावह मौन को।
बेहतरीन अभिव्यक्ति नारी के मन की ब्यथा ....उसके सहन शक्ति ओर चाहे नारी हो या पुरुष मर्यादा की लक्ष्मण रेखा सार्वभोमिक नैतिक मूल्यों के अंतर्गत रहे तभी कल्याण समाहित है ..नारी या पुरुष दोनों के लिए ....आभार एक सशक्त अभिव्यक्ति के लिए.....
ReplyDeleteयथार्थ के धरातल पर रची गयी एक सार्थक रचना...
ReplyDeleteएक बेहद सशक्त रचना...
ReplyDelete@कौशलेन्द्र जी..
एक बेहद सधी हुयी टिप्पणी... विचार मेरे मन में भी ऐसे ही थे पर शायद जैसे आपने व्यक्त किये मै ऐसे तो कभी नहीं कर सकता था...
कुँवर जी,
हाशिए पर खड़ी स्त्री का सच...
ReplyDeleteया तो गुलाम या सरताज का दर्जा दिया जाता रहा हमेशा...
पर हमें तो एक व्यक्ति, बेहद सामान्य व्यक्ति का दर्जा चाहिए... जिसको देने की ताकत इस पाखंडी समाज में नहीं है...
bahut hi sundar rachna hai, jhinjhor kar rakh dene wali......
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