अपने समय यानि पाँचवें-छठे दशकों के लोक-व्यापी आन्दोलन की सबसे गतिशील अभिव्यक्ति से सम्बद्ध प्रगतिवादी-जनवादी कवि महेंद्रभटनागर 87 वर्ष के हो चुके हैं। इस उम्र में भी वे साहित्य सृजन के साथ-साथ एक ब्लॉगर के रूप में अपनी सक्रियता बनाए हुये हैं, यह सुखद आश्चर्य से कम नही। परिकल्पना ब्लॉगोत्सव को सींचने वाले सृजनधर्मियों मे से एक कवि महेंद्रभटनागर आज हमारे समय के कवि हैं यह हम सभी के लिए गर्व की बात है। प्रस्तुत है उनकी कविता के वैशिष्ट्य एवं प्रभविष्णुता पर डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी का आलेख-

धुनिक हिन्दी गीत-कविता के भीष्म पितामह श्री महेन्द्र भटनागर वस्तुतः युग-पुरुष हैं। उनका हमारे समय में होना और निर्बाध रूप से लिखते रहना हमारे लिए गौरव की बात है । वे हिन्दी गीत को एक विशेष आयाम देनेवाले श्रेष्ठ कवियों में हैं और हम सबके लिए एक छायादार वृक्ष की तरह प्रेरणा-पुरुष हैं । उन्होने जब गीत लिखना शुरू किया था,तब छायावाद अपने चरमोत्कर्ष पर था। उसकी रेखाओं के बीच गाढ़ा रंग भरनेवाले बहुत-से कवि थे,जो आधारशिला की भाँति अचर्चित ही रहे, जबकि उनमें मन्दिर के कलश की तरह शीर्ष पर स्थापित होने की पूरी क्षमता थी। भटनागर जी उनमें से ही एक हैं,जिन्हें तमाम मूल्यांकनों के बावजूद आजतक सम्पूर्ण मूल्यांकन नहीं हुआ। उन्होने स्वयं तो भरपूर लिखा ही, कनिष्ठ कवियों को भी गीत लिखने के लिए अपने व्यक्तिगत प्रभाव से सम्मोहित किया। उनके गीत जहाँ एक ओर छायावाद के तारों को झनकारते हैं,वहीं दूसरी ओर नवगीत के मुख्य यथार्थवादी स्वर से टकराते हैं।ऐसा विराट फलक शायद ही किसी गीतकार के पास है। इसे हम उनकी जीवन्तता कहें या समय के साथ चलने की प्रवृत्ति कि इतना वयोवृद्ध होते हुए भी वे आज भी नवयुवकों की तरह दौड़ रहे हैं और अपनी रचनाओं को मुद्रित पुस्तकों से निकालकर डिजिटल दुनिया तक लाने की जद्दोजहद में पूरी तरह सक्रिय हैं,जिससे देश और भाषा की सीमाओं के पार का हिन्दी जगत भी उनके गीत गुनगुना सके। 

भटनागर जी के गीत सहज और सरल हैं। कोई दाँव-पेंच नहीं, कोई कलाबाजी नहीं। उनके भाव और विचार अनुभव-जन्य हैं, आयातित नहीं। वे गीतों में अपने आसपास के जीवन को शब्द देते हैं। जो दिखा, सो लिखा । इसीलिए उनके गीतों में प्रकृति पूरी व्यापकता और वत्सलता के साथ हर जगह मौजूद है। जो बात उन्होने तारों के लिए कही, वही उनके गीतों की परिभाषा भी है: 

जब जग में आग धधकती है, लपटों से दुनिया जलती है, 
अत्याचारों से पीड़ित जब भू-माता आज मचलती है, 
ये दु:ख मिटाने वाले हैं; जग को शीतल कर जाएंगे ! 
ये हिम बरसाने वाले हैं, ये अग्नि नहीं बरसाएंगे ! 

भटनागर जी का पहला गीत-संग्रह ‘तारों के गीत’ सन्‌ १९४९ में प्रकाशित हुआ था। सरकारी अभिलेख कहते हैं कि मेरा जन्म भी उसी साल हुआ था। उनका नवीनतम संग्रह ‘आधुनिक कवि’ इसी वर्ष (२०१३) प्रकाशित हुआ है। इस दीर्घ अवधि में उनके ३७ काव्यग्रन्थ, १० आलोचना ग्रन्थ, ५ लघुकथा संग्रह, ३ एकांकी संग्रह और ६ बाल-किशोर साहित्य प्रकाशित हो चुका है। यह संख्या बता रही है कि भटनागर जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को सृजनशीलता से जोड़ा और बिना फलप्राप्ति की आकांक्षा के भारती के भंडार को दोनो हाथों से उलीचकर भरा। ऐसे विराट व्यक्तित्व पर कुछ लिखना मेरे जैसे अल्पज्ञों के लिए खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि कोई कितना भी लिखेगा,अधूरा ही रहेगा। उनकी लघुकथाएँ, उनकी एकांकियाँ पारखी जौहरियों की प्रतीक्षा में आज भी खड़ी हैं। उनका बाल साहित्य भी समुचित माध्यमों से बच्चों के पास जाने के लिए उत्कंठित है। उनका काव्य-जगत छन्दोबद्ध और छन्दरहित दोनो है। यों कहें कि ‘बुद्ध भी है,युद्ध भी है, जिसे चाहो उसे चुन लो।’ मैने उनके गीतों को समग्र रूप में पढ़ा है,यह कहना असत्य होगा,मगर यह सोलहो आने सत्य है कि मैने जितने गीत पढ़े, वे सभी प्रीतिकर और सकारात्मक लगे ।जीवन के उत्थान- पतन के, इसके सपनों और अरमानों के गीत। गीत जिनमें संकल्प है। गीत जिनमें समय से आगे निकल जाने की ललक है।

नवगीत ने मुक्तछन्द कविता की डाँड़ामेड़ी में तमाम ऐसे बिम्बों-प्रतीकों को भी अपना लिया,जो सामान्यजन की कल्पनाशीलता की परिधि से परे थे। इससे गीत का स्वाभाविक प्रसाद गुण तिरोहित होने लगा और लोग नवगीत में मगज़मारी करने लगे। भटनागर जी उसी ग्वालियर नगर के हैं,जिसने हिन्दी नवगीत को बड़ा नाम वीरेन्द्र मिश्र दिया। विधा के रज्जुबन्ध को थोड़ी-सी ढीला कर लें,तो मुकुट बिहारी सरोज भी अपने ढंग के शीर्षस्थ गीतकार थे। भटनागर जी निरन्तर लिखते रहने और प्रचुर लिखने के बाद भी यदि उन दोनो की तरह व्यापक चर्चा में नहीं आये, तो उसका एक कारण उनका काव्यमंच से दूर रहना भी है। दूसरा कारण यह भी है कि उन्होने दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगर का दामन पकड़ने के बजाय ग्वालियर की उन गलियों में रमना स्वीकार किया, जिसके रेशे-रेशे में शास्त्रीय राग-रागिनियों के सुर बजते हैं और मर्मस्थल को बीधनेवाले शब्द मन्दिर के घंटे की तरह गूँजते हैं। मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इससे भटनागर जी के कर्तृत्व का मूल्य कम हो जायेगा। भवभूति आश्वस्ति देते हैं कि ‘कालो ह्ययं निरवधिः विपुला च पृथ्वी’ । समय अनन्त है और पृथ्वी विशाल है। कब अनुकूल समय पाकर कौन बीज धरती के गर्भ से फूट निकलेगा, कहा नहीं जा सकता। केदारनाथ घाटी के महाप्रलय के सन्दर्भ में भटनागर जी का यह ७० वर्ष पुराना गीत कितना प्रासंगिक है: 

हो जाते पल में नष्ट सभी भू,
 तरु, तृण, घर जिस क्षण गिरता, 
ध्वंस, मरण हाहाकारों का स्वर, 
 आ विप्लव बादल घिरता, दृश्य - 
प्रलय से भीषणतर कर, स्वर - 
जैसा विस्फोट भयंकर, गति - 
विद्युत-सी ले मुक्त प्रखर, 
सब मिट जाता बेबस उस क्षण 
 जग का उपवन प्यारा-प्यारा ! 
जब गिरता है भू पर तारा ! 

भटनागर जी ने १९४८ में नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी) किया था और प्रेमचन्द के समस्यामूलक उपन्यासों पर शोध कर पीएच.डी. की डिग्री हासिल की थी। जुलाई १९४५ से लेकर जुलाई १९८४ तक एक कुशल अधीती प्राध्यापक की भूमिका निभाते हुए उन्होने म.प्र. के उज्जैन, दतिया, देवास, इन्दौर और ग्वालियर जैसे सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध नगरों में प्रवास किया। उनका जन्म १९२६ में झाँसी में हुआ था। राष्ट्रीय महत्व के इस नगर की मिट्टी का भी असर उनके लेखन पर पड़ा। उनका अधिकांश जीवन चम्बल, मालवा और बुन्देलखंड अंचल में बीता। इन अंचलों की मिट्टी-हवा-पानी का प्रभाव भी उनकी रचनाओं पर पड़ा। ये ही विशेषताएँ उनके काव्य-वैभव को अलग पहचान भी देती हैं। दिल्ली-मुम्बई के प्रदूषित आकाश में भटनागर जी को तारों का यह रूप नहीं दिखाई देता: 

शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ? 
जब कि क्षण-क्षण पर प्रगति कर रात आती जा रही है, 
चंद्र की हँसती कला भी ज्योति क्रमश: पा रही है, 
हो गया है जब तिमिरमय विश्व का कण-कण हमारा ! 

उन्हे नादान बच्चों की हँसी प्यारी लगती है और किसानों के गले के गीत की कड़ियाँ भी। वे इन्हें कभी युद्ध के हवाले नहीं होने देंगे, क्योंकि वे इन्सानियत और शान्ति में विश्वास रखते हैं और ‘नई चेतना’ (१९५०) में छाती ठोककर कहते हैं: 

हँसी पर ख़ून के छींटे कभी पड़ने नहीं देंगे ! 
नये इंसान के मासूम सपनों पर 
कभी भी बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे । 

यह संकल्प उसीके मन में उठ सकता है,जो अग्निकुंड से तपकर निकला हो। भटनागर जी ने निरभ्र आकाश के तारे देखे हैं तो यथार्थ की धरती पर गुलाब के संग उगे काँटों की बींध को भी सहा है। तभी वे कहते हैं: 

रौरव नरक-कुंड में 
मर-मर जीना कैसा लगता है 
कोई हमसे पूछे! 
सोचे-समझे, मूक विवश बन
विष के पैमाने पीना कैसा लगता है 
कोई हमसे पूछे! 

एक सक्षम नायक की तरह वे नरक-कुंड की पीड़ा में लिप्त नहीं होते, बल्कि उससे ऊपर उठने की कोशिश करते हैं। वे अन्य प्रगतिवादियों की भाँति जीवन के नाकारेपन को नहीं गाते, बल्कि उसमें परिवर्तन लाने का आह्वान करते हैं। यहीं वे मुक्तछन्द कवियों के विधवा-विलाप से अलग हो जाते हैं,क्योंकि वे परिवर्तनकामी गीतकार हैं,क्योंकि वे सकरात्मक सोच की कविता के प्रवर्तक हैं: 

विश्व के उस पार की, कवि कौन है जो आज गाता ? 
सुन न पड़ती अब अलंकृत रीति-कवि की और वाणी, 
मिट चुकी बीते युगों की ईश की कल्पित कहानी, 
विश्व ने नव-भावनाओं से नया जीवन रचा है ; 
अब विगत युग-भव्यता की, कवि दुहाई दे न पाता ! 

उनकी मुक्तछन्द की कविताएँ भी मात्रिक अनुशासन में निबद्ध हैं। उनकी प्रतिष्ठा सामान्यतः प्रगतिशील मानवतावादी कवि के रूप में है और उनकी कविताओं पर कलम चलानेवालों में रामविलास शर्मा,मुक्तिबोध, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, विद्यानिवास मिश्र,शिवकुमार मिश्र जैसे दिग्ग्ज साहित्यकार हैं। जब वे तरुण कवि थे,तभी डॉ. रामविलास शर्मा ने उनपर बहुत सही टिप्पणी की थी कि ‘इस तरुण कवि ने अपनी समूची पीढ़ी को ललकारा है कि जनता के साथ खड़े होकर नयी ज़िन्दगी के लिए अपनी आवाज़ बुलन्द करे।’ इसी मूलमन्त्र ने भटनागर जी के आक्रोश को कभी उच्च स्वर में अभिव्यक्त नहीं होने दिया । उन्होने जो भी लिखा, अनुभवों को पचाकर लिखा। एक नवोन्मेषी गीतकार के रूप में उनका स्वतन्त्र मूल्यांकन होना बाकी है। हम जैसे दो-चार गीतकारों ने मिलकर जितना नहीं लिखा होगा, उससे कहीं ज्यादा गीत उन्होने अकेले लिखे हैं और सब के सब ‘हंस’ जैसी अपने समय की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं में ससम्मान छपीं। उनकी कविताएँ स्फटिक शिला की भाँति पारदर्शी भी हैं और टिकाऊ भी। वे समय के साथ जितनी पुरानी होंगी, उतनी सुहानी होती जाएँगी,विद्यापति के पदों की तरह,कबीर के दोहों की तरह, तुलसी की चौपाइयों की तरह।

डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र 
देवधा हाउस,5/2 वसंत विहार एन्क्लेव देहरादून-248006 
ई मेल संपर्क: buddhinathji@gmail.com 

संक्षिप्त परिचय: हिन्दी और मैथिली के प्रबल प्रतापी, जुझारू, मूर्धन्य गीत-कवि। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं और राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय काव्यमंचों पर समान रूप से लोकप्रिय। ‘जाल फेंक रे मछेरे’ ‘शिखरिणी’ ‘ऋतुराज एक पल का’ चर्चित गीत संग्रह। अलेग्जेंडर पुश्किन सम्मान, राष्ट्रकवि दिनकर जन्मशती राष्ट्रीय सम्मान, दुष्यन्त कुमार अलंकरण, उ.प्र. हिन्दी संस्थान के ‘साहित्य भूषण’ और कोलकाता के प्रथम ‘काव्यवीणा सम्मान’ से सम्मानित। सम्प्रति, अन्तरराष्ट्रीय संस्था ‘स्वयम्प्रभा- होलिस्टिक सेंटर फ़ॉर लेंग्वेज एंड लिटरेचर’ के संस्थापक अध्यक्ष।

2 comments:

  1. उम्र के इस पढ़ाव में इतनी उर्जा सच में प्रोत्साहन देती है । लेख के लिये साधुवाद ।

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  2. डॉ. महेंद्रभटनागर की उम्र पर मत जाइए। वह इस अवस्था में भी एक युवा रचनाकार की भाँति सक्रिय हैं। उनकी ऊर्जस्विता देखते बनती है।

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