करूणा और अन्य

भीतर करूणा कुचली जा रही
और जो पाया वही दे दिया  
नामालूम किससे लिया गया   
किसे दिया,   
मगर भीतर आवाजाही रही 
और कभी रिक्तता
फिर भी एक वो सदा से साथ रहा....   

अब जब करूणा विदा हो रही 
आस्था के पश्चात्  
तो देखता हूं  
वही संदर्भित मूल्य मेरा  
जो सारपूंजी समझा गया 
जाने-जाने को है...   

प्रणय की पताका में छिद्र हो रहे  
ध्वज में दबे महकते मूल्य-पुष्प कुम्हलाए  
और स्व विजय पूर्व ही 
हरहराकर गिरा परचम....   

नैतिकता की डोर 
दरकते आस्था के दीवारों सा टूट रही   
करूणा और अन्य ज्यों मुरझाये मूल्य-पुष्प  
महकहीन 
वही दे रहा आजकल .....   
पवित्रता चूक रही
संभवतः संयोग हो-   
अचेतन में पूर्व निर्धारित 

यकायक पुरानी डायरी पलटाया   
कितनी देरपता नहीं  
फिर आंसू बहते रहे 
मगर अविरलअबाध नहीं  
अब पवित्रता चूक रही मुझमें  

वही पीड़ा सालती रही 
और कड़वाहट के साथ   
फिर एक दौरा सा पड़ना  
किंतु सक्षम मस्तिष्क  
सब नियंत्रित है !   

मैं शायद अस्वस्थ हूं  
पता नहीं 
लेकिन शक्तिशाली हूं   
ये निश्चय है  
कोमलता कमजोरी नहीं है... 

अब    
दुनियादारी सीख रहा   
स्वयं को अनभिज्ञ रखे  
हो रहा घटना दर घटना  
और भी चालाकक्रूरभ्रष्ट...(संभवतः झूठ है !)   

भीतर से कुछ बोला  
चालाक किसके प्रति
क्रूरता किसके साथ ?  
क्या वही पीड़ा के लिए ?  

हां मै कमजोर हूं (निश्चय)  
मै हार चुकाशक्ति चूक गयी 
मेरा पतन हो चुका
अब शायद कभी न उठ पाऊं 

मेरे भीतर का बच्चा गिर गया  
लोग कुचले जा रहे  
स्त्रियां  
पदपैसावासना 
स्ब-सब  
दुनिया संपूर्ण कलुषता के साथ  
कुचल रही   
शायद बच्चा मर गया  

बुद्ध गुजर गया 
नरेन्द्र एक आध्यात्मिक स्वप्न  
राम मात्र एक राजकुंवर  
सरस्वती एक ......

 


                                  आत्मा रावण की

अपने से ही किए वादे  
लिए संकल्प  
अपथ के चट्टानों की शक्ल के शपथ  
जब भरभराकर लगते हैं गिरने 
चाहे एक पत्थर ही सही  
तब संपूर्ण व्यक्तित्व 
जाता है कांप   

यूं...
व्यक्तित्व बैसाखी के सहारे बन जाता है 
और यही टूटनबिखरनअधूरापन 
कितनी भी मात्रा में 
किसी भी स्तर पर हो  
कहलाता है पाप  

अपने-अपने कोण से भिन्न
और मात्रा में भी अलग 
समय लिया  
और जिसका असर भी होता है अलग...  

हां मैने किये हैं पाप (तुलना में बेहद न्यून) 
टूट गया स्वयं के समक्ष  
लिया संकल्प 
पथ सत्य का  
अब रहा नहीं 
बेदागपवित्रबाल...   

जो आया था  
शायद वो जा न पाए  
जो जाएगा वो फिरफिर आएगा  
और बारंबार छोड़ जाएगा 
वक्त के साथ  
और भी बड़ा दानव  

आत्मा रावण की 
यूं ही होती है विकसित 
भीतर का राम देखता है  
असहाय किशोर सा  
बुढ़ापा स्वयं का  
रावण की शक्ल में ...
 

                                      
ओ बालदेव छोर

ये जो रेगिस्तान सा  
सपाटशून्यअणु-अणु   
प्रतीत हो रहा हृदयस्थल   
अकारण नहीं है ... 

फिलहाल
संधिकाल से रहा गुजर  
यूं तो हर काल में 
किंतु ये वक्त  
व्यक्तित्व को दे रहा  
नवीन स्वरूपबहुआयामी सोचसुदृढ़  ढांचा   

कल तक जो मुझमें  
रचा बसा था  
वो बालदेव  
आज करता मुझे बाध्य   
मेरे विपरीत होने को...  

प्रत्येक स्तर पर 
भावनासोच,व्यक्तित्व के   
अनधिकृत प्रविष्ट हो जा रहा  
वो
जाने देव का मुखैाटा ओढ़ा दानव  
या दानव बनने को आतुर देव... 

जो भी हो रहा परिवर्तन  
भले ही हो अस्थाई सा  
मात्र क्षणिक और प्रायोगिक ही  
वही व्यक्तित्व के कोरे कागज पर  
मंत्रों से लिखे सिद्धांतों के ऊपर
जाने-अनजाने
अजीब सी भाषा, स्याही, भंगिमा  
आज उढ़ेल जा रहा...  
शायद
यह
परीक्षा का दौर है 
व्यक्तित्व के ठोसत्व का   
कि किस किनारे लगती है नाव 
सदैव के लिए  
पापछोर या पुण्य ओर....

सुजश शर्मा
(दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे मुख्यालय बिलासपुर में राजभाषा विभाग में कार्यरत।)

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