तिरस्कार भरे शब्द
शरदिंदु शेखर
ज़हर में पगे...
फिर भी एक आदत
व्यथा आँखों की कैसे लिखी जाए !....
रश्मि प्रभा
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मुनिया: वक्त के आइने में
1-अरे चुप
क्यों रोती हो
अब क्या खून पिओगी
पी लो
जी भर लो
जीभ इतनी लंबी थी
तो अमीर घर जाती
यहां क्यों टपक गई
2-नवाबजादी
बहुत हो गया
किताब छोड़ो
झाड़ू उठाओ
कलक्ट्री नहीं करनी
काम पर लग जाओ
3-बेहया
घर के अंदर आओ
पैर काबू में रखो
नहीं तो काटना होगा
बाप रे बाप
मेरे नसीब में ही रखी थी
कुलच्छिनी.............
शरदिंदु शेखर
जबरदस्त ! नारी की व्यथा को आवाज देती कविता..
ReplyDeleteगहनता से उकेरा प्रत्येक शब्द को ...।
ReplyDeleteउफ़.....कूट कूट कर भरी व्यथा ..कविता में ...
ReplyDeleteअच्छी रचना
ReplyDeletestay...
ReplyDeleteबहुत उम्दा... सत्य को रेखांकित करती....
ReplyDeleteसादर बधाई/आभार...
नारी के दर्द को बखूबी से रेखाकिंत किया..हर शब्द में दर्द उभरता है..
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteक्या सुन्दर चित्रण है,नारी के "बचपन"और "विश्वास" को पूर्ण रूप से सदा के लिये सुला देने वालॊ "लोरियों" का!
नारी व्यथा का बेहद खूबसूरत चित्रण.
ReplyDeleteबधाई.
भावों से नाजुक शब्द......बेजोड़ भावाभियक्ति....
ReplyDeleteव्यथा आँखों की कैसे लिखी जाए !....
ReplyDeletekya baat hai......uspar ye kavita,wah.....