तिरस्कार भरे शब्द
ज़हर में पगे...
फिर भी एक आदत
हो ही जाती है मुस्कुराने की
व्यथा आँखों की कैसे लिखी जाए !....
रश्मि प्रभा
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मुनिया: वक्त के आइने में

1-अरे चुप
क्यों रोती हो
अब क्या खून पिओगी
पी लो
जी भर लो
जीभ इतनी लंबी थी
तो अमीर घर जाती
यहां क्यों टपक गई


2-नवाबजादी
बहुत हो गया
किताब छोड़ो
झाड़ू उठाओ
कलक्ट्री नहीं करनी
काम पर लग जाओ

3-बेहया
घर के अंदर आओ
पैर काबू में रखो
नहीं तो काटना होगा
बाप रे बाप
मेरे नसीब में ही रखी थी
कुलच्छिनी.............

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शरदिंदु शेखर

11 comments:

  1. जबरदस्त ! नारी की व्यथा को आवाज देती कविता..

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  2. गहनता से उकेरा प्रत्‍येक शब्‍द को ...।

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  3. उफ़.....कूट कूट कर भरी व्यथा ..कविता में ...

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  4. बहुत उम्दा... सत्य को रेखांकित करती....
    सादर बधाई/आभार...

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  5. नारी के दर्द को बखूबी से रेखाकिंत किया..हर शब्द में दर्द उभरता है..

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  6. वाह!

    क्या सुन्दर चित्रण है,नारी के "बचपन"और "विश्वास" को पूर्ण रूप से सदा के लिये सुला देने वालॊ "लोरियों" का!

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  7. नारी व्यथा का बेहद खूबसूरत चित्रण.

    बधाई.

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  8. भावों से नाजुक शब्‍द......बेजोड़ भावाभियक्ति....

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  9. व्यथा आँखों की कैसे लिखी जाए !....
    kya baat hai......uspar ye kavita,wah.....

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