
दो कप पानी गैस पर रखते हुए
तुम मेरे साथ होती हो
ज्यों ज्यों चाय का रंग गहराता है
अदरक की खुशबू आती है
तुम मुझमें गहराती जाती हो
चाय मैं पियूँ या तुम
बात एक ही होती है ......

रश्मि प्रभा
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दो कप चाय...अदरक वाली...
सोचना
आदत ही बुरी है
फिर सोचा कि शाम हुई
फिर
तुम ज़ेहन में आए
अब सोचता हूं
कि न सोचूं तुम्हे
और सोचता ही जाता हूं
तुम्हारे बाल
तुम्हारे होंठ
तुम्हारी हंसी
तुम्हारा स्पर्श
और सर्दी की उस शाम की
वो बारिश...
सोच रहा हूं बना लूं फिर
वो अदरक की चाय
दो कप..
एक मेरा, एक तुम्हारा
दोनो पी लूं फिर
तुम मुझसे अलग कहां हो...

मयंक
तुम मुझसे अलग कहां हो...
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब ।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteचाय और वो भी अदरक वाली ...
ReplyDeleteअच्छी कविता !
और आपकी पंक्तियाँ भी..:)
अदरक की चाय और उनकी याद। गजब का मेल है भई।
ReplyDeleteअब तो अदरक वाली चाय पीने का मन हो आया है पी कर आती हूँ।
ReplyDeleteअदरक की मनमोहक चाय...
ReplyDeleteKitnee sahajta se likh letee hain aap!
ReplyDeleteसरल शब्दों में गहन अनुभूति. दोनों कप चाय पी लेने का लाजिक गजब का है.
ReplyDeleteवैसे चाय के दो कप देख कर चाय पीने का मन हो आया. माँ सुनेंगी तो कहेंगी, लालची कहीं का.
सच, एक ही तो हैं दोनों!
ReplyDeleteवाह.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति,बधाई.
ReplyDeleteवाह ..बहुत खूब
ReplyDeleteआप की पोस्ट ब्लोगर्स मीट वीकली (२०) के मंच पर प्रस्तुत की गई है /कृपया वहां आइये और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आप हिंदी भाषा की सेवा इसी लगन और मेहनत से करते रहें यही कामना है / आभार /link
ReplyDeletehttp://hbfint.blogspot.com/2011/12/20-khwaja-gareeb-nawaz.html
bahut achchi rachna garm garm chaay ke jaisi antim lines ne to maja duguna kar diya.
ReplyDeletedil ko chhoo gayi............
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