तुम मेरे संतृप्त स्नेह की शिल्पकार
जैसे भी चाहो तराशो इसको,
नाम दो, आकार दो, ..... पर
कि शब् दों में छिपे होते हैं भ्रम अनेक,
छंटता है इनसे अनिष्ट छलावा,
शब्द छोड़ जाते हैं छलनी मुझको,
प्रिय, मैं अब स्नेह से नहीं
आओ, बैठो पास, और पास मेरे,
कहो -- कहो न शब्दों से कुछ,
कहो, पर जो कहना है तुमको
बस, मंद्र मौन को कहने दो --
कि शब्दों से कहीं बढ़ कर
सच, अलंकृत होगा यहाँ पर
मौलिक मार्मिक मौन से, प्रिय
अनुरक्त भावनाओं में अनुरंजन,
स्निग्ध आकांक्षायों में उत्परिवर्तन ।
तुम कभी मुझको ग़लत न समझो,
आँख की पुतली-सा प्रिय है मुझको
सौम्य सुकुमार संचेय स्नेह तुम्हारा ।
जो होता केवल एक ही अर्थ
तो मैं न डरता, न डरता,
पर यहाँ तो प्रिय
प्रत्ये क शब्द के हैं अर्थ अनेक --
हो सकता है कि तुम कहो कुछ
और मैं समझूँ उसका
इसीलिए प्रिय,
अब मैं शब्दों से नहीं
शब्दों के प्रकरण से डरता हूँ ।
तुम, मेरे स्नेह की प्रशंसनीय शिल्पकार
यह मेरी एकमात्र अनुनय विनय है तुमसे
मुझको अब कुछ और शब्द न दो आज,
तुम स्नेह को अपने मौन में पलने दो ।
विजय निकोर जी का जन्म दिसम्बर १९४१ में लाहोर में हुआ ...१९४७ में देश के दुखद बटवारे के बाद दिल्ली में निवास । अब १९६५ से यू.एस.ए. में हैं । १९६० और १९७० के दशकों में हिन्दी और अन्ग्रेज़ी में कई रचनाएँ प्रकाशित हुईं...(कल्पना, लहर, आजकल, वातायन, जागृति, रानी, Hindustan Times, Thought, आदि में) । अब कई वर्षों के अवकाश के बाद लेखन में पुन: सक्रिय हैं और गत कुछ वर्षों में तीन सो से अधिक कविताएँ लिखी हैं। कवि सम्मेलनों में नियमित रूप से भाग लेते हैं ।
तुम मेरे संतृप्त स्नेह की शिल्पकार
ReplyDeleteजैसे भी चाहो तराशो इसको,
नाम दो, आकार दो, ..... पर
शब्द न दो,..............bahut acchi rachna aur parichaye praptkar hardik prasannata hui .......shubhkamnaye hamari aapko , shukriya rashmi ji , roobaroo ke liye .
उनमुक्त गहरी रचना
ReplyDeleteTech Prévue · तकनीक दृष्टा
kabhi kabhi shabdon se zada maun ki bhasha sunder hoti hai. Achi kavita ke liye bahut bahut badhai
ReplyDeleteविजय निकोर जी का उनकी गहन मननशील कविता 'मौन में पलने दो' से परिचय कराते हुए सार्थक प्रस्तुतिकरण हेतु आभार
ReplyDeleteतुम स्नेह को अपने मौन में पलने दो behad khoobsurat likhe hain.....
ReplyDeleteअहा, हर पंक्ति अपनी गहराई में उतर गयी..बहुत सुन्दर।
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