लघु कथा 

" भाई , कभी हमारी घर भी आओ न ? " आनंद ने कहा .
" कहो , कब आऊँ ? पुरुषोत्तम ने पूछा . 
" कल ही आ जाओ ." आनंद ने निमंत्रण तो दे दिया लेकिन मन ही मन में वह बहुत पछताया . 
उसकी एक बुरी आदत है . वह यह कि वह स्वयं तो मित्रों से मिलने के लिए उनके घरों में चला जाता है , घंटों ही उनसे बतियाता है और खूब खा - पी कर लौटता है लेकिन किसी मित्र को वह अपने घर में न्यौता देने से कतराता है . कोई मित्र भूले - भटके उसके घर आ भी जाता तो उसे सांप सूँघने लगता है . 

अपने घर में उसके साथ देर बतियाना उसे पसंद नहीं . देर तक बतियाने का मतलब है कि बार - बार कुछ न कुछ खिलाना - पिलाना . आनंद को घर में आये मित्र को जल्दी - जल्दी भगाने का एक ख़ास फार्मूला आता है . वह फार्मूला उसने पुरुषोत्तम पर भी आज़माया . सबसे पहले उसने पत्नी से बर्तन उठवाये , फिर बार - बार वह अपनी कलाई पर बँधी घड़ी देखने लगा और अंत में दो - दो मिनटों के बाद उसने उबासियाँ लेनी शुरु कर दीं . 
 पुरुषोत्तम को समझने में देर नहीं लगी . वह जाने के लिए उठ खड़ा हुआ . उलाहने भरे लहजे में बोला - " अच्छा अब मैं चलता हूँ . " 
" इतनी जल्दी दोस्त . दस - पंद्रह मिनट पहले ही तो तुम आये थे .पाँच - दस मिनट और बैठते , चाय का एक दौर और चलता . "
 " आपने बहुत खिला - पिला दिया है . एकाध बिस्किट और एक चाय का कप पीकर पेट भर गया है . और खाने - पीने की गुंजाइश नहीं रही . चलता हूँ . " 
 आनंद का घड़ी देखना और उबासियाँ लेना बंद हो गया था .

प्राण शर्मा 

ग़ज़लकार, कहानीकार और समीक्षक प्राण शर्मा का जन्म वजीराबाद (पाकिस्तान)  में 13 जून 1937 को हुआ। प्राथमिक शिक्षा दिल्ली में हुई और पंजाब विश्‍वविद्यालय से एम. ए., बी.एड. किया। वह 1965 से यू.के. में प्रवास कर रहे हैं। उनकी दो पुस्‍तकें ‘ग़ज़ल कहता हूँ’ व ‘सुराही’ (मुक्तक-संग्रह) प्रकाशित हो चुकी हैं।

19 comments:

  1. आपकी लघुकथा आज के परिवेश को चित्रित कर रही है, प्रेरणा प्रद है यह लघुकथा !

    ReplyDelete
  2. कडुवी सच्चाई की बयान करती लाजवाब लघु कथा ... प्रेम साहब बहुत व्यंगात्मक रूप से अपनी बात रखते हैं अपनी लघु कथाओं में ...

    ReplyDelete
  3. बहुत कुछ बोलती आपकी यह लघुकथा ..
    साभार !!

    ReplyDelete
  4. प्राण जी , नमस्कार , बहुत असली कहानी है .. ऐसा ही तो होता है महानगरों में. आपने छुपे हुए व्यंग्य से ही बात को समझा दी है .
    बधाई

    ReplyDelete
  5. प्राण जी , नमस्कार , बहुत असली कहानी है .. ऐसा ही तो होता है महानगरों में. आपने छुपे हुए व्यंग्य से ही बात को समझा दी है .
    बधाई

    ReplyDelete
  6. बहुत बढ़िया कथा....
    एक तरफ़ा व्यवहार रखने वालों की कमी नहीं...
    शुक्रिया
    अनु

    ReplyDelete
  7. आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल २४/७/१२ मंगल वार को चर्चा मंच पर चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आप सादर आमंत्रित हैं

    ReplyDelete
  8. एक कडवी सच्चाई को दर्शाती सुन्दर प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  9. एक कडवी सच्चाई को दर्शाती सुन्दर प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  10. प्राण जी,

    बहुत कुछ कह जाती है यह लघुकथा. बधाई.

    चन्देल

    ReplyDelete
  11. ऐसा लगा इस कथा का केन्द्रीय पात्र मैं ही हूं।
    कहने का मतलब यह गुण बड़ा आम है।

    ReplyDelete
  12. बहुत सुंदर लघुकथा !

    कौन बुला रहा है
    कौन जा रहा है
    खाना हर कोई
    अपना आपना
    खा रहा है !!

    ReplyDelete
  13. बहुत कुछ कह दिया इस लघु कथा ने...

    ReplyDelete
  14. हाहा.. सही है.. ऐसे लोग भी देखे हैं!!

    ReplyDelete
  15. महानगर हो या कोई कस्बा, आर्थिक विपन्नता जिन्दगी और ज़िंदगी के मायने को बदल देती है. मन भले ही चाहे पर हालात की मजबूरी दोस्तों के बीच ऐसे ही दूरी पैदा कर देती है. बहुत अच्छी लघु कथा. बधाई और शुभकामनाएँ प्राण शर्मा जी.

    ReplyDelete
  16. बहुत बढ़िया , में किसी ऐसे ही तरीके की तलाश में था, मेरा भी एक जान पहचान वाला है , वो खाने पिने का शौकीन तो नही मगर बात कर कर के पकाता बहुत है

    ReplyDelete
  17. कितने स्वार्थी हो गए हैं लोग आजकल।
    यही बता रही है यह लघुकथा।

    ReplyDelete
  18. ऐसे मित्रों की बहुतायत है. एक गहरा सन्देश देती है यह लघु कथा.

    ReplyDelete
  19. Pran ji
    aapki har laghukatha mein ik sandesh hota hai jo margdarshan karwane mein saksham rahta hai...ek baar phir se..Sanesh le aayi jeevan ki sachayi ke saath..

    ReplyDelete

 
Top