सपनों में ही पेंग बढ़ाते, झूला झूलें सावन में।
मेघ-मल्हारों के गानें भी, हमने भूलें सावन में।।

मँहगाई की मार पड़ी है, घी और तेल हुए महँगे,
कैसे तलें पकौड़ी अब, पापड़ क्या भूनें सावन में।
मेघ-मल्हारों के गानें भी, हमने भूलें सावन में।।

हरियाली तीजों पर, कैसे लायें चोटी-बिन्दी को,
सूखे मौसम में कैसे, अब सजें-सवाँरे सावन में।
मेघ-मल्हारों के गानें भी, हमने भूलें सावन में।।

आँगन के कट गये नीम,बागों का नाम-निशान मिटा,
रस्सी-डोरी के झूले, अब कहाँ लगायें सावन में।
मेघ-मल्हारों के गानें भी, हमने भूलें सावन में।।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
http://uchcharan.blogspot.in/

11 comments:

  1. मँहगाई की मार पड़ी है, घी और तेल हुए महँगे,
    कैसे तलें पकौड़ी अब, पापड़ क्या भूनें सावन में।
    मेघ-मल्हारों के गानें भी, हमने भूलें सावन में।।
    सटीक प्रस्तुति

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  2. बहुत सुंदर प्रस्‍तुति

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  3. सावन पर मँहगाई की मार .....
    सुंदर प्रस्तुति !!

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  4. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार (17-07-2012) को चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
    सुन्दर रचना...

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  6. आँगन के कट गये नीम,बागों का नाम-निशान मिटा,
    रस्सी-डोरी के झूले, अब कहाँ लगायें सावन में।
    मेघ-मल्हारों के गानें भी, हमने भूलें सावन में।।

    अस्तित्व विहीन होते परंपराओं पर आधारित प्रस्तुति अच्छी लगी। मेरे नए पोस्ट "अतीत से वर्तमान तक का सफर पर" आपका हार्दिक अभिनंदन है।

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  7. बहुत शानदार प्रस्तुति सुन्दर सावन गीत अनुपमभाव बहुत सुन्दर

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  8. वहाँ भी है
    सुंदर है
    शानदार है
    इसलिये यहां
    भी है।

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  9. आँगन के कट गये नीम,बागों का नाम-निशान मिटा,
    रस्सी-डोरी के झूले, अब कहाँ लगायें सावन में।
    आदरणीय शास्त्री जी आज के हालात को और सावन मनभावन को प्रभावित करते तत्वों को दर्शाती अच्छी रचना ..काश ये ज़माने की आँखों में सरकार की आँखों में भी पड़े

    भ्रमर ५

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