तुम्हारा ख्याल सूरज की लालिमा बन
सागर के मध्य से निकलता है
भर लेता है अपनी आगोश में
और मैं -
भोर की आरती से संध्या आरती के परिधान में
तुमसे निःसृत वेदमंत्र बन जाती हूँ
रश्मि प्रभा
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जब सोचती हूँ तुम्हें..
जब सोचती हूँ तुम्हें..
एक धुन गूंजती है..
स्वरों के व्याकरण से परे..
अपरिभाषित..अर्थवान..
मंदिर में कांपती दीपशिखा सम्मोहन सा रचती है..
धूप की सुगंध घेर लेती है मुझे..
और मैं..
तुम्हारे नाम की प्रदक्षिणा करने लगती हूँ..!!
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भेजे हैं कुछ अक्षर तुम्हें..
भेजे हैं कुछ अक्षर तुम्हें..
जिन्हें अमरत्व का वरदान है..
आश्वस्त हूँ..तुम तक पहुँचते
ये अपना रंग..अपनी सुगंध..
अपने अर्थ सम्हाल ही लेंगे..
नीले आकाश में शायद
मिलें उन नक्षत्रों से भी..
जिनके संयोगों ने रचा था
एक मौन...निष्पाप रिश्ता..
जो रहा अपराजेय..अधीर और अधूरा..
जब तुम आकाश देखो..
बहुत चमकीले ये शाश्वत शब्द..
पहचान लोगे न..
मनीषा
मंदिर में कांपती दीपशिखा सम्मोहन सा रचती है..
ReplyDeleteधूप की सुगंध घेर लेती है मुझे..
और मैं..
तुम्हारे नाम की प्रदक्षिणा करने लगती हूँ..!!
बहुत खूब ...
दोनों रचनाएँ भी सम्मोहन सा रचती है। अति प्रभावशाली!!
ReplyDeleteदोनों रचनाएँ सुन्दर और दिलकश हैं ... शब्दों का प्रयोग बहुत अच्छा है ...
ReplyDeleteदोनो रचनाये सुन्दर भावो से भरी।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत !
ReplyDeleteमंदिर में कांपती दीपशिखा सम्मोहन सा रचती है..
ReplyDeleteधूप की सुगंध घेर लेती है मुझे..
और मैं..
तुम्हारे नाम की प्रदक्षिणा करने लगती हूँ..!!
सुन्दर भावो से भरी रचनाएँ
bhut khubsurat rachna...
ReplyDeleteआखंड प्यार में डूबी दोनों रचनाये
ReplyDeleteजब सोचती हूँ तुम्हें..
ReplyDeleteएक धुन गूंजती है..
स्वरों के व्याकरण से परे..
अपरिभाषित..अर्थवान wah....lajabab.
भूत सुंदर भावों से सजी कवितायें !
ReplyDeleteदोनों ही रचनाएँ बहुत सुन्दर और भावपूर्ण...
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