सजीव सारथी ... इनकी पुस्तक की समीक्षा से पहले मैं इनकी खासियत बताना चाहूँगी . सजीव सारथी यानि एक जिंदा सारथी उनका
स्वत्व है, उनकी दृढ़ता है, उनका मनोबल है,उनकी अपराजित जिजीविषा है .... हार मान लेना इनकी नियति नहीं , इनसे मिलना , इन्हें
पढ़ना , इनके गीतों को सुनना जीवन से मिलना है . हिंद युग्म के आवाज़ http://podcast.hindyugm.com/ से मैंने इनको जाना , पहली
बार देखा प्रगति मैदान में हिन्दयुग्म के समारोह में .... कुछ भावनाओं को शब्द दे पाना मुमकिन नहीं होता , फिर भी प्रयास करते हैं हम
और .... लोग कहते हैं जताना नहीं चाहिए , पर जताए बिना हम आगे कैसे बढ़ सकते ये कहकर कि इस अनकही पहेली को सुलझाओ ....
मैं भी नहीं बढ़ सकती, यूँ कहें बढ़ना नहीं चाहती . अपने 'आज' से संभवतः सजीव जी को कहीं शिकायत होगी, पर मेरे लिए वह कई निराशा के
प्रेरणास्रोत हैं और उनकी इसी प्रेरणा के ये स्वर हैं



और है उनका यह संग्रह 'एक पल की उम्र लेकर' !
अपनी पहली रचना 'सूरज' में कवि सूरज से एहसास हाथ में लेकर भी सूरज को मीलों दूर पाता है और इस रचना में
मैंने सूरज को कवच की तरह पाया ... जो कवि से कवि के शब्द कहता है -
" मैं छूना चाहता हूँ तुम्हें
महसूस करना चाहता हूँ
पर ....
तुम कहीं दूर बैठे हो '
कवि सूरज को सुनता है ( मेरी दृष्टि , मेरी सोच में ) और भ्रमित कहता है-
'तुम कहते तो हो ज़रूर
पर आवाजों को निगल जाती हैं दीवारें ...'
फिर अपनी कल्पना को देखता वह कहता है -
'याद होगी तुम्हें भी
मेरे घर की वो बैठक
जहाँ भूल जाते थे तुम
कलम अपनी ...'
दूसरों की तकलीफों को गहरे तक समझता है कवि , तभी तो चाहता है ...
"काश !..........
मैं कोई ऐसी कविता लिख पाता
कि पढनेवाला पेट की भूख भूल जाता
...
पढनेवाला अपनी थकान को
खूंटी पर उतार टाँगता
....
देख पाता अक्स उसमें
और टूटे ख़्वाबों की किरचों को जोड़ पाता
...काश !'
समसामयिक विषय पर भी कवि ने ध्यान आकर्षित किया है और करवाया है -
'गाँव अब नहीं रहे
प्रेमचंद की कहानियोंवाले
...........
सभ्यता के विकास में अक्सर
विलुप्त हो जाती हैं
हाशिये पर पड़ी प्रजातियाँ
.........
विलुप्त हो रहे हैं हल जोतते
जुम्मन और होरी आज
विलुप्त हो रहा है किसान !'
प्रतिस्पर्द्धा , सबकुछ पा लेने की जी तोड़ दौड़ , हर फ्रेम को अपना बना लेने की मानसिकता ने बच्चों से पारले की मिठास छीन ली है
तभी तो -
'स्कूल से लौटते बच्चे
काँधों पर लादे
ईसा का सलीब '.... से दिखाई देते हैं ! और ऐसे में ही अपने बचपन की उतारी केंचुली हमें मनमोहक नज़र आने लगती है . और अनमना मन
कहता है -
'ऐसा स्पर्श दे दो मुझे
संवेदना की आखिरी परत तक
जिसकी पहुँच हो ...'
अन्यथा ईश्वर प्रदत्त कस्तूरी से अनजान मनुष्य कामयाबी की गुफा में अदृश्य होने लगता है , जिसे कवि की ये पंक्तियाँ और स्पष्ट करती हैं -
'कामयाबी एक ऐसा चन्दन है
जिससे लिपट कर हँसता है
नाग - अहंकार का '
ज़िन्दगी जाने कितने रास्तों से गुजरती है , पर सबसे नाज़ुक रास्ता प्यार का लचीली पगडंडियों सा होता है ... हर शाम देता है दस्तक , कभी हंसकर ,
कभी नम होकर और इस डर से कि ,
'जाने कब वो लौट जाए ...
समेट लेता हूँ
अश्कों के मोती
और सहेज के रख लेता हूँ ....'
प्यार , त्याग , स्पर्श , ख्याल, मासूमियत , ताजगी सबकुछ है इस 'एक पल की उम्र लेकर ' में . बस एक पन्ना पलटिये और शुरू से अंत तक का सफ़र तय कर
लीजिये . फिर - बताइए ज़रूर , क्या इन पलों की सौगात अनमोल नहीं !!!

रश्मि प्रभा 

13 comments:

  1. sachchai liye hue bahut hi sunder shabdon main likhi aaj ke mahole per achchi prartuti.badhaai aapko.




    please visit my blog.thanks.

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  2. 'जाने कब वो लौट जाए ...
    समेट लेता हूँ
    अश्कों के मोती
    और सहेज के रख लेता हूँ ...
    एक पल की उम्र लेकर ... संजीव सारथी जी की इस पुस्‍तक के बारे आपकी यह समीक्षा इसे पढ़ने के लिये प्रेरित करती है, इस बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये आपको बहुत-बहुत बधाई एवं आभार ।

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  3. ...बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट। सजीव सारथी से क्षणिक मुलाकात जीवंत हो गई। उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता।

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  4. बहुत सुन्दर और लाजवाब रचना!

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  5. 'स्कूल से लौटते बच्चे
    काँधों पर लादे
    ईसा का सलीब '.... से दिखाई देते हैं ! वाह !
    सजीव सारथी जी का परिचय, सुंदर गीत व उनकी पुस्तक की समीक्षा पढ़कर बहुत अच्छा लगा, आभार!

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  6. सभ्यता के विकास में अक्सर
    विलुप्त हो जाती हैं
    हाशिये पर पड़ी प्रजातियाँ
    संजीव जी की रचनाएँ पढता रहा हूँ. अच्छा लगता है सूक्ष्मता के उस बिन्दु तक का सफर ...

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  7. सजीव सारथी जी का परिचय, सुंदर गीत व उनकी पुस्तक की समीक्षा पढ़कर बहुत अच्छा लगा, आभार|

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  8. सभ्यता के विकास में अक्सर
    विलुप्त हो जाती हैं
    हाशिये पर पड़ी प्रजातियाँ

    बहुत सुन्दर

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  9. 'याद होगी तुम्हें भी
    मेरे घर की वो बैठक
    जहाँ भूल जाते थे तुम
    कलम अपनी ...'

    अपने ही घर की सी बातें इतने खूबसूरत अंदाज में रची हैं कवि ने कि और पढाने को मन करता है |

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  10. 'कामयाबी एक ऐसा चन्दन है
    जिससे लिपट कर हँसता है
    नाग - अहंकार का '

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  11. 'कामयाबी एक ऐसा चन्दन है
    जिससे लिपट कर हँसता है
    नाग - अहंकार का '...
    लाजवाब ...
    संजीवजी , उनकी पुस्तक और कविताओं की समीक्षा के माध्यम से उन्हें जानना अच्छा लगा ...
    आभार !

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  12. bahut hee prabhavshaali rachnaon se aapne apni samiksha ke madhyam se prichay karvaya hai jiske liye aabhar vyakt kartaa hoon.

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