सच की तासीर अलग अलग होती है
....... रश्मि प्रभा
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चिठ्ठी: अन्ना दादा के नाम....
अन्ना दा,
सादर प्रणाम
कोई तोड़मरोड़ कर शोर मचाता है
कोई सर झुकाकर स्वीकार करता है
....... रश्मि प्रभा
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चिठ्ठी: अन्ना दादा के नाम....
अन्ना दा,
सादर प्रणाम
दादा जी उम्मीद है आपका गांव तो खुशहाल होगा, यहां दिल्ली में आपकी वजह से दम घुट रहा है। सड़कों पर चलना मुश्किल हो गया है। हालत ये है कि 15 मिनट का रास्ता दो घंटे में भी पूरा हो जाए तो गनीमत है। दादा जी इस बार बच्चों का बहुत मन था कि वो 15 अगस्त को दिल्ली के लाल किला पहुंचे और वहां आजादी का जश्न मनाएं। इसके लिए उन्होंने बहुत तैयारी भी कर रखी थी, लेकिन सुबह से ही टीवी पर आप और आपके समर्थकों का हो हल्ला देखकर हिम्मत नहीं पड़ी कि घर से बाहर निकलें। पहले तो बच्चों को बुरा लगा, लेकिन कोई बात नहीं मैने उनके लिए मैकडोनाल्ड से पिज्जा मंगवा लिया था, इसलिए उन्हें झंडारोहण न देख पाने का कोई मलाल नहीं है। हां एक बात और बच्चों से वादा किया था कि शाम को दिल्ली में अच्छी रोशनी होती है, वो देखने चलेंगे। पर आजादी वाले दिन आपने रात को घर की बत्ती बंद रखने की अपील कर ये मुश्किल भी आसान कर दी। बच्चों को बताया कि अन्ना दादा ने रात में पूरे घंटे भर बिजली बंद रखने को कहा है, अंधेरे में तो दिल्ली में कुछ भी हो सकता है। बस बच्चे डर गए और उन्होंने खुद ही मना कर दिया घर से बाहर जाने के लिए।
दादा आप जानते हैं कि स्वतंत्रता दिवस देश का राष्ट्रीय पर्व है। आज के दिन और कुछ हो ना हो, पर इस दिन हम शहीदों को याद तो करते हैं, और उन्हें सम्मान देते हैं। लेकिन आपने शहीदों का ये हक भी छीन लिया। कल पूरे दिन लोग टीवी पर आपको ही तरह तरह की मुद्रा में देखते रहे। आप तो जानते ही हैं कि आजकल टीवी पर वैसे भी शहीदों के लिए कोई समय नहीं रह गया है। एक मौका था, जब शहीदों के बारे में बच्चे कुछ जान पाते तो वो मौका भी आपने छीन लिया। दादा देश आपको आपको गांधी कह रहा है, इसलिए आपकी जिम्मेदारी कहीं ज्यादा बढ गई है, क्योंकि आपने कुछ भी ऐसा वैसा किया, जो नहीं होना चाहिए तो आपका कुछ नहीं होगा, हां गांधी के बारे में बच्चों के बीच गलत राय बनेगी। पिछले दिनों आपने फांसी देने की बात की, आपने ये भी कहा कि गांधी के रास्ते बात ना बने तो शिवाजी का रास्ता अपनाना होगा। अरे दादा आपको तो पता है कि गांधी जी कहते थे कि कोई एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरा सामने कर दो। पर आप तो कुछ भी बोल रहे हैं। इससे बच्चों में गलत संदेश जा रहा है। गांधी जी तो हर हाल में अंहिसा को मानने वाले थे। दादा कई बार आप जब भाषा की मर्यादा तोडते हैं, उस समय बच्चे पूछते हैं कि गांधी जी भी ऐसे ही बोला करते थे, तो मेरे पास कोई जवाब नहीं होता है।
दादा, आपका जीवन बहुत कीमती है, पूरा देश आपको बहुत प्यार करता है। सभी लोग चाहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार ना रहे, लोगों को उनका हक मिले। हर आदमी का काम बिना रिश्वत और जल्दी हो। जरा सोचिए द अगर ऐसा हो जाए तो लोगों का जीवन कितना आसान हो जाएगा। लेकिन दादा जी अब मैं कुछ बात आपको बताना चाहता हूं, पर आप अपनी उम्र बताकर ये मत कहिएगा कि आपको सब पता है, मुझे कुछ भी नहीं सुनना। सच ये है दादा कि जब तक आप फौज में थे, तो आप सामान पहुंचाने की जिम्मेदारी निभाते रहे, वहां से आए तो गांव में छोटे से मंदिर में रह कर गांव को दुरुस्त करने में लग गए। कई बार आपका आमना-सामना महाराष्ट्र की सरकार से हो चुका है। भूख हड़ताल तो आपकी एक तरह से आदत हो गई है। दादा आप नाराज मत होना, सच कहूं तो आप आज की दुनियादारी को नहीं समझ पा रहे हैं। अब हम इतना भ्रष्ट हो चुके हैं कि सुधरने की गुंजाइश नहीं रह गई है।
अन्ना दादा कडुवा सच ये है कि अगर रिश्वत बंद हो जाए, तो सरकारी नौकरी करने के लिए कोई तैयार ही नहीं होगा। प्राईवेट सेक्टर में मैनेजमेंट किए बच्चों को जो वेतन मिलता है, उससे कम वेतन आईएएस, आईपीएस को मिलता है। अन्ना दा आपको तो पता होगा कि ज्यादातर राज्यों में जिले के कलक्टर और पुलिस कप्तान का पद बिकता है। दादा जब कलक्टर और कप्तान की ये हालत है तो और पदों के बारे में क्या कहा जाए। देश में थाने बिकना तो आमबात है। आज बाबू की तनख्वाह से दस गुना उसकी ऊपर की कमाई है। बडे शहरों में अगर अफसर और सरकारी कर्मचारी ईमानदार हो जाएं तो उसका घर चलाना मुश्किल हो जाएगा।
दादा जी अंदर की बात तो ये है कि भ्रष्टाचारियों को फांसी देने की आपकी मांग पूरी हो जाए तो, कम से कम 10 हजार जल्लादों की भर्ती तत्काल करनी होगी, और इन्हें देश भर मैं तैनात करना होगा। इसके बाद हर जिले में कम से कम दो सौ लोगों को अगर रोजाना फांसी पर लटकाया जाए, और ये प्रक्रिया साल भर भी चलती रहे, फिर भी हम देश को सौ फीसदी भ्रष्टाचारियों से मुक्त नहीं कर सकेंगे। दादा ऱिश्वतखोरों की पैठ बहुत गहरी है। जिस देश में मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए बाबू को पैसे देने पडें, जिस मुल्क में शहीदों के लिए खरीदे जाने वाले ताबूत में दलाली ली जाती हो, जिस मुल्क में सैनिकों को घटिया किस्म का बुलेट प्रूफ जैकेट देकर सीमा पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता हो, जिस देश में डाक्टर चोरी से मरीज की किडनी निकाल लेते हों, जिस देश शहीदों की विधवाओं के लिए बने फ्लैट पर सेना के अफसर और नेता कब्जा जमा लेते हों, उस देश को पूरी तरह ईमानदार बना देना इतना आसान है क्या।
मैं तो जानता हूं कि आपने कभी ईमानदारी से समझौता नहीं किया। आप तो देश में एक बार फिर रामराज्य की कल्पना कर रहे हैं। आप जब भी किसी आंदोलन का बिगुल फूंक देते हैं तो पीछे नहीं हटते। लेकिन दादा ये आंदोलन कामयाब हो गया तो मेरे साथ ही करोडों लोगों को बहुत मुश्किल होगी। मेरा तो बड़ा से बडा काम इतनी आसानी से हो जाता है कि पता ही नहीं चलता। सब लोग महीनों पहले ट्रेन में सफर करने के लिए रिजर्वेशन कराते हैं, मुझे तो टीटीई को एक फोन भर करना होता है, उसके बाद सारा इंतजाम वो खुद करता है। हां थोडा पैसा ज्यादा देता हूं। बिजली का बिल जमा करने के लिए मैं आज तक कभी लाइन में नहीं लगा। बिजली विभाग का आदमी खुद ही हर महीने आकर चेक ले जाता है। उसे भी थोडे से पैसे देता हूं, मेरा बिल भी दूसरों के मुकाबले कम आता है। सरकारी अस्पताल में कितनी भी भीड़ हो, मुझे डाक्टर सबसे पहले देखते हैं, और दवा भी वहीं से मिल जाती है,जबकि वही दवा दूसरे लोगों को बाहर से खरीदनी पड़ती हैं। दादा टेलीफोन विभाग से भी मुझे कोई दिक्कत नहीं होती है। वो बेचारे थोडे से पैसे लेते हैं, मेरा बिल सिर्फ महीने का किराया भर आता है।
अन्ना दा आपको पता है मैं जिस भी सरकारी महकमें में जाता हूं, लोग मेरी बहुत इज्जत करते हैं। इसके लिए मुझे ज्यादा कुछ नहीं करना पडता। बस थोडे से पैसे अफसरों से लेकर कर्मचारी तक को देनें पडते हैं, और दीपावली पर कुछ छोटा मोटा गिफ्ट। लेकिन काम कोई नहीं रुकता। आज हालत ये है कि दूसरों का कोई काम रुकता है तो वो भी मेरे पास आते हैं। मेरे एक फोन करने भर से लोगों की मदद हो जाती है, पर दादा अगर रिश्वतखोरी बंद हो गई तो हमारा क्या होगा। मुझे तो अपना भी कोई काम करने की आदत नहीं है। हमें ही नहीं हमारे जैसे करोडों लोग हैं, जो अपना काम भी खुद से नहीं कर पाते।
हां दादा भूल गया था, आज टीवी पर देखा कि पुलिस ने आपको गिरफ्तार कर लिया और अनशन करने से रोक दिया। पहले तो मुझे दिल्ली पुलिस पर थोडा गुस्सा आया, फिर लगा कि ठीक ही है। दिल्ली में शांति तो रहेगी, रास्ता चलना तो थोडा आसान रहेगा। बेवजह का शोर शराबा बंद रहेगा।
दादा आप जनलोकपाल के चक्कर में ना पडें। आप पुराने जमाने की सोचते हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि 121 करोड की आवादी वाले देश को किसी भी कानून में नहीं बांधा जा सकता। ईमानदारी के लिए लोगों में नैतिकता की जरूरत है और आज देश में कोई नैतिक नहीं रह गया। दादा आप कहते हैं कि अगर जनलोकपाल बन गया तो आधे मंत्री जेल में होगे, ये सुनकर आप हैरत में पड जाएंगे कि अगर ईमानदारी से बेईमानों की पहचना की गई तो सेना के आधे से ज्यादा बडे अफसरों को जेल भेजना होगा। आज जितनी भ्रष्ट हमारे देश की सेना है, उसका किसी दूसरे महकमें से कोई मुकाबला नहीं है। दादा आपने लोगों से एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आंदोलन में शामिल होने को कहा था। सरकार कर्मचारियों ने तो छुट्टी नहीं ली, सब काम पर हैं, पर घर की बाई जरूर छुट्टी चली गई। इसलिए आपको लेकर घर में भी बहुत नाराजगी है।
चलिए दादा अब पत्र बंद करते हैं, आफिस भी जाना है। हां चलते चलते आपको स्व. शरद जोशी जी की दो लाइने पढ़ाना चाहता हूं। वो कहते हैं ना कि सरकार किसी काम के लिए ठोस कदम उठाती है, कदम चूंकि ठोस होते हैं, इसलिए उठ नहीं पाते। देश की बर्बादी के सिर्फ दो कारण हैं, ना आप कुछ कर सकते हैं, ना मैं कुछ कर सकता हूं। होता वही है जो होता रहता है।
दादा प्रणाम।
जेल से बाहर आइये तो मुलाकात होगी।
महेन्द्र श्रीवास्तव
मैं पत्रकार हूं, लंबे समय तक प्रिंट में काम करने के बाद फिलहाल न्यूज चैनल से जुड़ा हूं। मीडिया से होने के कारण मुझे सत्ता के नुमाइंदों को काफी करीब से देखने का मौका मिला। कहते है ना हमाम में सब.....। इसी पीड़ा को शब्दों में ढालने की कोशिश करता हूं।
बिल्कुल सही कहा है आपने ... इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आभार ।
ReplyDeleteयथार्थ बताती हुई सार्थक पोस्ट /सच कहा आपने देश मैं भ्रस्टाचार इतना फैल गया है की अगर वो बंद हो गया तो और बहुत सी समस्याएं खड़ी हो जायेंगी /सरकारी नोकरी छोड़कर लोग प्राइवेट कंपनी ज्वाइन कर लेंगे /इस मुद्दे के साथ अगर सिस्टम सुधारने की तरफ ध्यानं दें तो भी ठीक होगा/बधाई आपको इतने अच्छे लेख के लिए /
ReplyDeleteव्यंग्य के माध्यम से यथार्थ चित्रण किया है। स्वतन्त्रता दिवस पर अंधकार की अपील क्या देशद्रोह नहीं है?
ReplyDeleteविचारणीय!
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा है आपने
ReplyDeleteमुझे इस ब्लाग पर जगह देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteबात को रखने का बहुत खूबसूरत अंदाज़ आपकी बात बिल्कुल सही है बहुत सुन्दर प्रस्तुति |
ReplyDeletegood post .......i liked the hint of sarcasm in it......:)
ReplyDeleteisiliyen to khte hain ke bahn rshmi didi kaa andaaze byaan gaalib ki trah kuchh or hai ..akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeletepriya bhai mahendr jee is sreshth rachna ke liye mai aapko badhai dena chahta hoon,aaj ki jo tasvir aapne kheenchi hai veh ham sabhi bhog rahe hain lekin koi bolta naheen. janta ka kuchh le de ke kaam to hohi jaata hai isliye veh santusht rehta hai. shayad veh jayaada antarmukhi ho kar jeena seekh gayaa hai .yahi uski niyati bhee ban chuki hai aur isi main khush hai. ab anna bhee kayaa kare? sab theek hee hai lagtaa hai use. chaliye aap se bhee sehmat ho lete hain,dhanyawad priya bhai.
ReplyDeleteये चिट्ठी क्या संदेश देना चाहती है, मुझे समझने मे थोड़ी मुश्किल हो रही है, क्या अन्ना जो कर रहे हैं वो नहीं करना चाहिए, जैसा चल रहा है वैसा ही चलना चाहिए??? जैसा की आपकी पंक्तियाँ कह रही है ...
ReplyDeleteना आप कुछ कर सकते हैं, ना मैं कुछ कर सकता हूं। होता वही है जो होता रहता है।
Bahut hi acchhi rachna... aabhar..
ReplyDeleteदिल्ली की सडको से होता हुआ पत्र अन्ना दादा तक पहुंच जाये यही शुभकामनाये |
ReplyDeleteशानदार व्यंग्य ...अन्ना के पीछेवाहवाही लूटने की चाह लिए वे लोग भी खड़े हैं जो आकंठ भ्रषटाचार में लिप्त है कैंडल मार्च के बजाय एक कदम भ्रषटाचार के विरुद्ध बढ़ाते तो अच्छा होता
ReplyDeletebehtrin prastuti ...
ReplyDeleteपत्र के माध्यम से उठाए गए सवाल सामयिक हैं।
ReplyDeleteविचारणीय प्रस्तुति।
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
अन्ना दादा के नाम चिट्ठी बहुत अच्छी तरह से लिखी , सब कुछ कह डाला kuच बचा ही कहाँ है? ऐसी कलम को सलाम.
ReplyDeleteमहेंद्र जी ने देश के दर्द को बहुत ही सहज व्यंगात्मक शैली में प्रस्तुत किया है...इसे पढवाने के लिए शुक्रिया...परसाई जी की याद दिला गये...शुरुआत कहीं से तो होनी है...लम्बी से लम्बी यात्रा एक कदम से शुरू होती है...
ReplyDeleteटिपिकल शहरी का टिपिकल व्यंग्य बहुत बढ़िया बन पड़ा है. बात है.
ReplyDeletebehad khoobsoorat or sach se awgat karati post
ReplyDelete१. फुर्सत के क्षणों में भ्रष्टाचार पर चिंता ज़ाहिर कर इतिश्री कर लेने वाली शहरी मध्यमवर्गीय ज़नता भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने को सड़क पर उतरी... क्या देश के लोकशाही के लिए यह अच्छा लक्षण नहीं है ?
ReplyDelete२. अभी तक देश और समाज के प्रति निरपेक्ष बने रहने के कारण उचित ही आलोचना का पात्र रहा शिक्षित युवा डिस्को,पब,इंटरनेट - मोबाईल चैट से परे सामाजिक और अनिवार्यतः शासन के मुद्दे पर अपनी राय बना रहा है.. बहस कर रहा है...प्रदर्शन कर रहा है.. देश की जनतांत्रिक प्रणाली के लिए क्या यह शुभ संकेत नहीं ?
३. चुनाव के चुनाव प्रतिनिधियों का चेहरा देखने वाली जनता आज अपने सांसद से सवाल कर रही है.. अपनी बात समझा रही है.. अपनी मांगे रख रही है.. केवल निजी फायदे के लिए एम्.पी, एम्.एल.ए. से पास जाने वाला आम आदमी से लेकर कभी भी उनके पास न जाने वाले बुद्धिजीवी तबका अपने सांसद से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कड़ा और प्रभावी कानून मांग रहा है. विधायिका सदस्यों से कार्यपालिका के कामों जैसे की सड़क या हैण्ड पम्प की मांग से परे कानून बनाने को जिम्मेदार लोगों से कानून की मांग करना क्या संसदीय लोकतंत्र की परिपक्वता का परिचायक नहीं है ?
४. आपको याद है पिछली बार कब कोई आन्दोलन बिना बस के सीसे चकनाचूर किए संचालित हुआ था ? स्व संयम और अहिंसा का जो पाठ यह देश इस आन्दोलन में पढ़ रहा है, क्या वह भावी किसी भी आन्दोलन का आदर्श नहीं होना चाहिए ? जब सब मान बैठे हों कि बहरी सरकारें केवल तोड़ फोड़, आगजनी या बम्ब बारूद कि भाषा समझती हों तब एक आन्दोलन निष्ठां, मेहनत सांगठनिक कौशल और आहिंसा के रास्ते सरकार को पानी पिला देता है. अन्य आवश्यक मुद्दों पर संघर्ष करने वाले समूहों और व्यक्तिओं के लिए क्या यह नज़ीर नहीं है ? यह आन्दोलन क्या अपनी प्रबंधकीय क्षमता और आदर्शों के अद्भुत मेल के लिए अकादमिक संसथानों में पढाये जाने योग्य नहीं है?
५. भ्रष्टाचार के खिलाफ और लोकपाल के समर्थन में चलने वाले आन्दोलन को मिला जन समर्थन दलितों , आदिवासियों और अन्य वंचितों को लेकर चलने वाले आन्दोलनों को कमज़ोर तो नहीं करता..बल्कि उनकी सफलता का भी दरवाज़ा खोलने की कोसिस ही करता है.. क्या यह महज़ इर्ष्या है या कई सम्माननीय लोग सतासीन दल के हांथो में खेल रहे है?
५. यह सही है की केवल कानून कुछ नहीं कर सकता है.. समाज जैसा होता है सरकार वैसी ही होती है.. पर व्यवस्था में सुधार संभव है या देश के हर नागरिक को पूर्ण रूप से नैतिक बना देना. और क्या समाज के पूरी तरह से नैतिक होने के इंतज़ार में हम बैठे रह सकते हैं ? और क्या यह नैतिक समाज का यूटोपिया राज्य की 'आधुनिक' व्यवस्था को खारिज नहीं कर देगा ?
६. राष्ट्रीय अस्मिता के चिन्हों को समाज को पुनः लौटा रहा है यह आन्दोलन.. गांधीवादी कहा जाना गाली नहीं है .. बंदेमातरम को दक्क्षिणपंथीओं के हाथ से तो इन्कलाब जिंदाबाद को वामपंथीओं से वापस ले राष्ट्र को सौंप रहा है यह आन्दोलन... क्या अपने राष्ट्र प्रतीकों को वापस क्लेम करना आन्दोलन कि प्रतिगामिता है ?
मुझे लगता नहीं है की सरकारी लोकपाल बिल का खोखलापन किसी से छिपा है.. न ही इस बात को रेखांकित करने की ज़रूरत है की असाधारण समय असाधारण प्रयासों और विकल्पों की मांग करता है.......
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Posted By rajanikant mishra to AAMUKH............. at 8/23/2011 04:58:00 AM
१. फुर्सत के क्षणों में भ्रष्टाचार पर चिंता ज़ाहिर कर इतिश्री कर लेने वाली शहरी मध्यमवर्गीय ज़नता भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने को सड़क पर उतरी... क्या देश के लोकशाही के लिए यह अच्छा लक्षण नहीं है ?
ReplyDelete२. अभी तक देश और समाज के प्रति निरपेक्ष बने रहने के कारण उचित ही आलोचना का पात्र रहा शिक्षित युवा डिस्को,पब,इंटरनेट - मोबाईल चैट से परे सामाजिक और अनिवार्यतः शासन के मुद्दे पर अपनी राय बना रहा है.. बहस कर रहा है...प्रदर्शन कर रहा है.. देश की जनतांत्रिक प्रणाली के लिए क्या यह शुभ संकेत नहीं ?
३. चुनाव के चुनाव प्रतिनिधियों का चेहरा देखने वाली जनता आज अपने सांसद से सवाल कर रही है.. अपनी बात समझा रही है.. अपनी मांगे रख रही है.. केवल निजी फायदे के लिए एम्.पी, एम्.एल.ए. से पास जाने वाला आम आदमी से लेकर कभी भी उनके पास न जाने वाले बुद्धिजीवी तबका अपने सांसद से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कड़ा और प्रभावी कानून मांग रहा है. विधायिका सदस्यों से कार्यपालिका के कामों जैसे की सड़क या हैण्ड पम्प की मांग से परे कानून बनाने को जिम्मेदार लोगों से कानून की मांग करना क्या संसदीय लोकतंत्र की परिपक्वता का परिचायक नहीं है ?
४. आपको याद है पिछली बार कब कोई आन्दोलन बिना बस के सीसे चकनाचूर किए संचालित हुआ था ? स्व संयम और अहिंसा का जो पाठ यह देश इस आन्दोलन में पढ़ रहा है, क्या वह भावी किसी भी आन्दोलन का आदर्श नहीं होना चाहिए ? जब सब मान बैठे हों कि बहरी सरकारें केवल तोड़ फोड़, आगजनी या बम्ब बारूद कि भाषा समझती हों तब एक आन्दोलन निष्ठां, मेहनत सांगठनिक कौशल और आहिंसा के रास्ते सरकार को पानी पिला देता है. अन्य आवश्यक मुद्दों पर संघर्ष करने वाले समूहों और व्यक्तिओं के लिए क्या यह नज़ीर नहीं है ? यह आन्दोलन क्या अपनी प्रबंधकीय क्षमता और आदर्शों के अद्भुत मेल के लिए अकादमिक संसथानों में पढाये जाने योग्य नहीं है?
५. भ्रष्टाचार के खिलाफ और लोकपाल के समर्थन में चलने वाले आन्दोलन को मिला जन समर्थन दलितों , आदिवासियों और अन्य वंचितों को लेकर चलने वाले आन्दोलनों को कमज़ोर तो नहीं करता..बल्कि उनकी सफलता का भी दरवाज़ा खोलने की कोसिस ही करता है.. क्या यह महज़ इर्ष्या है या कई सम्माननीय लोग सतासीन दल के हांथो में खेल रहे है?
५. यह सही है की केवल कानून कुछ नहीं कर सकता है.. समाज जैसा होता है सरकार वैसी ही होती है.. पर व्यवस्था में सुधार संभव है या देश के हर नागरिक को पूर्ण रूप से नैतिक बना देना. और क्या समाज के पूरी तरह से नैतिक होने के इंतज़ार में हम बैठे रह सकते हैं ? और क्या यह नैतिक समाज का यूटोपिया राज्य की 'आधुनिक' व्यवस्था को खारिज नहीं कर देगा ?
६. राष्ट्रीय अस्मिता के चिन्हों को समाज को पुनः लौटा रहा है यह आन्दोलन.. गांधीवादी कहा जाना गाली नहीं है .. बंदेमातरम को दक्क्षिणपंथीओं के हाथ से तो इन्कलाब जिंदाबाद को वामपंथीओं से वापस ले राष्ट्र को सौंप रहा है यह आन्दोलन... क्या अपने राष्ट्र प्रतीकों को वापस क्लेम करना आन्दोलन कि प्रतिगामिता है ?
मुझे लगता नहीं है की सरकारी लोकपाल बिल का खोखलापन किसी से छिपा है.. न ही इस बात को रेखांकित करने की ज़रूरत है की असाधारण समय असाधारण प्रयासों और विकल्पों की मांग करता है.......
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Posted By rajanikant mishra to AAMUKH............. at 8/23/2011 04:58:00 AM