भाषायी ताकतो के पीछे उनका रोना
कुछ खोज लेना हदोँ के पार
सीँखचोँ के पीछे बंद हो जाने का डर आखिर कहाँ तक हमेँ भगा ले जाएगी
कुछ बची रहती है उनकी भाषा मेँ आँचल का दूध माँ की ममता
पेड़ोँ की छाँव चाँद की चाँदनी
सूरज की रोशनी और नदी की कलकल
सबकुछ इतनी जल्दी नहीँ बदलता
उसने पहले मिट्टी नर्म किया
डाला कुछ खाद
माटी को सीँचकर बनाया भूरभुरा
तब बोया बीज बचाया उसे पाले से
तब अँकुरा पौधा और दिया
भरपुर धूप और पानी
तब आया उसमेँ फल
हाँ सबकुछ इतनी जल्दी नहीँ बदलता
समय की परिधि मेँ हम नहीँ बांध सकते उनकी भाषा शब्द का रोना
रोना भर नहीँ होता किसी पिँजरे मेँ और फुनगी पर चोँच मारता कौवा
कब मुंडेर बैठा टकटकी बांधे देखता है आँगन मेँ बिखरे दानोँ को
इनके देखने को हम नहीँ बांध सकते भाषा की चादर मेँ कहीँ
उस नाले मेँ गिरी हमारी तुम्हारी भाषा देखो नहीँ बहती नदी की ओर
और नहीँ मिलना चाहती खारे समुद्र मेँ
वह उकेरना चाहती है अपनी मीठी भाषा तुम्हारे मन के कागज मेँ संगीत सा शब्द तब कहीँ जाकर वह मरना चाहेगी साधना मेँ रत होकर
किसी खारे समुद्र मेँ कदापि नहीँ ।
* मोतीलाल/राउरकेला
* 9931346271
मोहक रचना
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बेहतरीन रचना,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST-परिकल्पना सम्मान समारोह की झलकियाँ,
bahut achchi lagi.....
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