(एक)
.......याद
याद !
चली आती है,
बिन बुलाए मेहमान की तरह !
बंद दरवाजे और खिड़कियाँ
दरीचों से झाँकती
सूरज की रोशनियाँ
अंधेरे काले नाग को
निगल जाती है,
याद !
चली आती है ।
आंगन में फैली तन्हाईयाँ
धूप में लिपटी
कितनी परछाईयाँ
दबे पांव
पसर जाती है,
याद !
चली आती है ।
उज़ड़ी हुई वीरानियाँ
जिस्मों से निकली
मादक अंगड़ाईयाँ
चुपचाप धीरे से
बहका जाती है,
याद !
चली आती है ।
खामोश सहमी वादियाँ
बीते दिनों की
कितनी कहानियाँ
अंधेरी रातों में
कहर ढ़ा जाती है,
याद !
चली आती है,
बिन बुलाए मेहमान की तरह ।
(दो)
खामोशी के पीछे
यूँ
तो कितना कुछ
दफन
हो जाता है मुझ में,
एक
अँधेरा गहरा कुआँ
अनगिनत
लाशों से भरा,
बस,
कभी-कभार
बाहर
निकलती हैं
चंद
मुस्काने...
चंद
अल्फाज़..
इक
खोखली सी हँसी
फिर
घंटो तक फैली
गमगीन
खामोशी......
सब
कुछ कितनी
आसानी
से छुप जाता है
मेरे
धीर-गंभीर,शांत, कठोर
और
अभेद्य आवरण में,
कोई
नहीं देख पाता
मेरे
यायावर मन को
जो
सदियों से भटक रहा है
एक
अनजानी तलाश में...
मेरे
अंदर हिलोरे लेते
समन्दर
पर
मैं
बड़ी सहजता से
बाँध
देती हूँ
विचारों
का इस्पाती पुल
जिसे
पार कर
एक
भी बूँद पहुँच नहीं पाती
पलकों
के किनारों तक..
सब्जी
काटते समय
मेरे
अँगूठे पर पड़े
चाकू
के निशान तो
देख
लेते हैं सभी
पर
मेरे अंतस पर पड़े
गहरे
घावों को
मैं
छुपा लेती हूँ
सुरमई
काजल और
किनखाब
की कश्मीरी साड़ियों में,
सब
कुछ चलता रहता है
सरल,सपाट,यंत्रवत..
पर
जब कभी उठते हैं
ज्वार-भाटे
कुछ
बूँदें बना ही लेती हैं
रास्ता
बाहर निकलने का
दाँत
भींचकर मैं
रोक
लेती हूँ
इस
प्रवाह को
मन
होता है
जोर-जोर
से चीखूँ...चिल्लाऊँ...रोऊँ...
मेरे
अन्दर धधकते लावा को
बाहर
उँडेल दूँ
पर
मैं तो ज्वालामुखी के
मुहाने
पर बैठी
कर
रही हूँ इंतजार
एक
विस्फोट का
जिस
दिन ज्वालामुखी फटेगा
मैं
चिथड़े-चिथड़े होकर
बिखर
जाऊँगी
हवा
में फैल जाएँगी
चंद
मुस्काने...
चंद
अल्फाज़..
इक
खोखली सी हँसी
और
फिर वही घंटो तक फैली
गमगीन
खामोशी......
(तीन)
बचपन
वह गंदी-मलिन
अपने शरीर पर लिये धूल की चादर
पहिने फटा-पुराना
ढ़ेरों दाग-धब्बों वाला
मटमैला सा फ्रॉक
कंधे पर लटकाए
प्लास्टिक की एक बड़ी सी थैली
बीनती रहती है
गलियों में,
कचरे के ढेर में,
खाली प्लॉट में,
दूध की थैलियाँ,
प्लास्टिक के टुकड़े,
रबर की पाइप,
टूटे हुए नलके,
एल्युमिनियम के ठीकरे,
लोहे के सरिये......
और भी न जाने क्या-क्या
जब-जब देखती है
अपनी उम्र के बच्चों को
रंगबिरंगे बस्ते/नाश्ते के डिब्बे
और पानी की बॉटलों से लैस
स्कूल जाते हुए,
दौड़ पड़ती है
कबाड़ी के यहाँ
अपना कबाड़ बेचने के लिये
जब उसके हाथों में आते हैं
खनकते सिक्के
तो खनक उठती है हँसी
उसके होठों पर
क्योंकि इन्ही पैसों से तो
भरनी है उसे
अपने छोटे भाई-बहिन की स्कूल फीस
खुद को खत्म करके भी
वह बचाना चाहती है
उनका बचपन
साहित्यकार पिता डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के यहाँ सन् 1972 में जन्म। वर्तमान में गुजरात में ऑर्टस एवं कॉमर्स कॉलेज में अंग्रेजी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।
वीणा,अक्षरा,साक्षात्कार,भाषा,सार्थक,भाषा-सेतु,ताप्ती-लोक,हरिगंधा सहित लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन। हिन्दी-गुजराती परस्पर अनुवाद भी नियमित प्रकाशित ।
संपर्क : डॉ. मालिनी गौतम,
मंगलज्योत सोसाइटी, संतरामपुर-३८९२६० गुजरात।
"ख़ामोशी" के पीछे
ReplyDeleteधधकते ज्वालामुखी
का ताप
मापती रचनायें....
समय की धूल से अटी पड़ी
तमाम "यादों" के
जंगल से झाँकती
कुछ ज़िम्मेदारियाँ
जो "बचपन" को पेश करने में माहिर हैं
सीधे एक बुज़ुर्ग संस्करण में।
नन्हें बुज़ुर्ग
रोज सपने में देखते हैं
इन्द्रधनुषी सपनों की तस्वीरें...
जो
फ़ॉसिल्स बन गयी हैं
और
जिन्हें बड़े गौर से देखती है
एक बॉर्बी डॉल।
उफ़्फ़!
ये ख़ामोशी
कितनी विस्फोटक होती है!
बहुत ही भावपूर्ण रचनाएं...
ReplyDeleteसंवेदनाओं से भरी रचनायें...
ReplyDeleteसुन्दर भावपूर्ण और जीवन की सच्चाई से ओत प्रोत रचनाएँ
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