चित्र : गूगल से साभार
४० साल पहले जिस खिड़की के सामने बैठकर सुकून मिला करता था आज जब उस खिड़की के सामने बैठी तो उलझन सी होने लगी ! कभी एक बड़ा सा मैदान हुआ करता था जहाँ आज वहां ईट की दीवारों से बहुमंजिले इमारतों के सिवाए कुछ भी तो नही बचा है ! कभी हुआ करते थे मैदानों में घने घने पेड़ ! और उन पेड़ों पर पड़े टायरों एवं रस्सियों से बने झूलें ! जिन पर गांव की लड़कियां पेड़ों की आखिरी छोर को छूने की कोशिश करते नजर आती थी ! उन पेड़ों में हर तरह के पेड़ थे मानों वो भी अनेकता में एकता का प्रतीक होते दिखाई  देते थे ! उन पेड़ों  में से एक  इमली के पेड़ के नीचे एक कुआं हुआ करता था ! वहां ग्वाले अपने मवेशियों को लेकर उनकी प्यास बुझाने के लिए  आया करते थे ! वही एक ओर बैठे वंशी काका को ग्वालें घेर कर बैठ जाते और घंटों किसी मुद्दे को लेकर बहस किया करते थे ! परन्तु उनके मुद्दे क्या हुआ करते थे इसके बारे में मुझे तनिक भी जानकारी नही होती थी ! शायद अपने परिवारों को लेकर , गांव जवार या किसी तरह का राजनीतिक मुद्दा हुआ करता होगा ! क्योंकि अक्सर जहाँ ४ लोगों बैठते हैं वही इन्ही तरह के मुद्दों पर ही बहस छिड़ जाती है ! 

एक ओर सुखिया काकी चारपाई पर अपने पोतों ओर पोतियों के साथ बैठी रहती थी और गांव की औरतें उसे अम्मा अम्मा कह कर घेरे रहती थी! यहीं से दिखते थे वो बचपन की नासमझी में उलझे बच्चें जो तितलिओं के पीछे धूप में भागा करते थे ! और तब उनकी अम्मा पीछे से आवाज लगाकर उनसे कहती थी 'ना जा रे इती दोपहरिया में देह काली पड़ जाएगी !' 

यही से देखा करती थी गौरी-शंकर की आंख मिचौली ! जो सबकी आँखों से नजरें बचाकर साँझ को मिलने का वादा  भरते थे ! हर तरफ बस शोरगुल हुआ करता था ! बच्चों की खिलखिलाहट ! पंछिओं का चहचहाना ! वंशी काका के बैलों के घुंघुरू की आवाज ! वो सुखिया काकी का अचानक से अपनी बहू को आवाज लगाना ! सब कुछ सुखमय हुआ करता था ! वो पत्तों का हिलना वो तितलियों का उड़ना ! वो काले काले घिरते बादल !

अह ! आज ४० साल बाद जब फिर बैठी उस खिड़की के सामने तो देखा सब कुछ बदल गया है ! अब ना वो पंछियों की चहचाहट है ना तितलियों की उडान ! ना बच्चों की खिलखिलाहट है ना वो अपनी बहू को आवाज लगती सुखिया काकी !

ना जाने गौरी-शंकर कहाँ होंगे !वो दोनों एक साथ भी होंगे या समाज में मान मरियाद और इज्ज़त की वजह से अलग होकर अपने अपने बाल बच्चों के खोये होंगे ! जाने वो समय की दौड़ में वो बच्चें कहाँ होंगे जो बेवजह ही तितलियों के पीछे भागा करते थे ! हाँ ! वो इमली का पेड़ जरुर बचा है जो शहर की सड़कों पर बिछी कंक्रीट के फंसकर उम्र से पहले ही बूढ़ा हो गया है ! बस कुछ दिन ही और शेष है इसके जीवन का अंत होने में !

मुझसे यह सब देखा नही जा रहा है ! मै आज ही इस खिड़की को हमेशा के लिए बंद करवा दूंगी ! क्योंकि अब यह मुझे मेरी उम्र का एहसास कराने लगी है ! और अब इनसे ना धूप के कतरे अन्दर आते है और ना हवाएं ! बस आती है तो कारखानों से निकले धुएं ! और उनकी उनके मशीनरियों की आवाजें ! शहर के ट्राफिक का शोरगुल और पड़ोस में अपनी पत्नी से लड़ते रामू मेकेनिक की चिल्लाने की आवाज ! जो रोज रात को शराब पीकर आता है और अपनी पत्नी से लड़ाई करता और उसको मरता पिटता है ! 

क्या क्या कहें कुछ भी नही बचा है कहने को शेष ! हर बात में घुटन सी होती है अब ! कुछ भी तो नही बचा है जो दिल को सुकून दे अब ! शायद वक़्त आ गया है की अब घरों को खिडकियों की जरूरत नही ! 

विधू यादव 

विधू यादव , लखनऊ के एक कस्बे अर्जुनगंज में रहती हैं !ये  लखनऊ यूनिवर्सिटी से  जनसंचार एवं पत्रकारिता से M.Sc.कर रही हैं  ! साथ ही आंचलिक विज्ञान नगरी में science communicator हैं  ! इनका  ब्लॉग है http://haoslonkiudaan.blogspot.in/  इसके अलावा लेखन में इनकी  काफी रूचि है ! इसलिए script writing  भी करती हैं !

2 comments:

  1. बहुत सही बात कही विधु जी ने...यूँ भी अब वातानुकूलित घरों में खिड़कियों का क्या काम.....

    अच्छी रचना..
    शुक्रिया रवीन्द्र जी.
    सादर
    अनु

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