गाँव से भागता हुआ आदमी जब
शहर की ओर भागने लगा था तो
सबकुछ पाने की चाह से कितना
लाचार और बेबस सा था और है
गाँव भी टूटने लगे हैं अब तो देखो
लौटाकर आयें भी तो जैसे गाँव भी
नज़र आने लगा है गाँव भी बेरूखा
न चौपाल है न फूंकता चलम कोई
न कूएँ से भरती पानी पनिहारी भी
खेत खलिहानों से बैलों की न जोड़ी
न गाय भैसों से भरा खलिहान है
न कूदते नहाते बच्चे तालाब में अब
न प्यार के लिये मर मिटाता भी कोई
मेहमान आतेजातें पडौसी को खबर नहीं
रात के न भजन संध्या आरती होती है
स्वार्थ का सूरज अब तपने लगा यहाँ भी
गाँव से भागता हुआ आदमी जब
सेल टीवी पीसी से उबने लगा आदमी
बंगलों में भले लगाये हों पौधे लोन मगर
वो स्पर्श मिलता नहीं मिट्टी का अभी वो
गाँव में छोडकर आये थे नंगे पाँव के निशाँ
दूध दोहती माँ का प्यार गाय की मीठी नज़र
मख्खन से भरे बर्तन से उठती सुगंध अब
छूट गया है प्यार हर चीज में भी स्वाद का
माँ वृद्धाश्रम में रोटी हमारा समय भी हो गया
कसी लौटूं गाँव में अब शहर से भी आगे बढ़ा
खेत के पैसों की धूम से बिज़नेस की बात अब
होने लगी है होड अब तो मकानों के जंगलों में
न शहर में रह सकता मैं न गाँव का हो सकूं मैं
() पंकज त्रिवेदी

गाँव से बागती लड़कियों पर कुछ नहीं लिखा क्या ?
ReplyDeleteआदमी होकर आदमी पर ...
सच है| हम गावों के लोग, न शहर के हो पाए हैं न गावों के ही |
ReplyDeleteएक सच्ची-मुच्ची अच्छी रचना...
bahut badiya chintansheel rachna ..
ReplyDeleteprastuti ke liye aabhar!
गाँव से भागता हुआ आदमी जब
ReplyDeleteसेल टीवी पीसी से उबने लगा आदमी
बंगलों में भले लगाये हों पौधे लोन मगर
वो स्पर्श मिलता नहीं मिट्टी का अभी वो
गाँव में छोडकर आये थे नंगे पाँव के निशाँ ..... त्रिवेदी जी सच्चा मर्म चित्रित किया है जिसे सब महसूस करते हैं
सच्चाई का आइना दिखाती कविता. बहुत सुंदर.
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