झुग्गी झोपड़ियों से जो धुंआ निकलता है
उसमें कई उम्मीदों की भूख मिटती है
बहुत शांत खामोशी आकाश को छूती है
धुएं के साथ साथ ....
झुग्गी-झोपड़ियों से
निकलते धुंऐं को कभी
मौन होकर देखना...
उसमें कुछ तस्वीर
नजर आऐगी..
जो आपसे
बोलेगी, बतियायेगी....
पूछेगी एक सवाल
आखिर यहां भी तो रहते हैं
तुम्हारी तरह ही
हाड़-मांस के लोग
फिर क्यों रोज
इनके घरों से मैं नहीं निकलता?
फिर क्यों दोनों सांझ
इनका चुल्हा नहीं जलता.....?
अरूण साथी
marmik rachna...sahi kaha....hum kaise nazarandaz kar sakte hain ye sach
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और दिल को छू लेने वाली रचना | बधाई |
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
bahutachchha
ReplyDeleteआपका आभार
ReplyDeleteबहुत मार्मिक और सार्थक रचना ...बहुत बहुत
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ReplyDeleteधुआँ भी बतियाता है..उनकी पीर सुनाता है..
ReplyDeleteनिश्चय ही घर का दुर्भाग्य बाँचता होगा।
ReplyDeletebahut khub sunder chitran
ReplyDeleteगौर कीजिएगा....
गुज़ारिश : ''........तुम बदल गये हो..........''
सुन्दर सार्थक संवेदनशील चिंतन ! बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteझुग्गी झोपड़ियों से जो धुंआ निकलता है
ReplyDeleteउसमें कई उम्मीदों की भूख मिटती है
बहुत शांत खामोशी आकाश को छूती है
धुएं के साथ साथ ....
बेहद गहन भाव ..