शोभना चौरे
वेदना तो हूँ पर संवेदना नहीं, सह तो हूँ पर अनुभूति नहीं, मौजूद तो हूँ पर एहसास नहीं, ज़िन्दगी तो हूँ पर जिंदादिल नहीं, मनुष्य तो हूँ पर मनुष्यता नहीं , विचार तो हूँ पर अभिव्यक्ति नहीं


Tuesday, July 29, 2008

बेटियाँ 

उन्होंने एक ही रजाई में
अपने सुख दुःख बाटें है |
वाचलता से नही ,
एक दूसरे की सांसो से
एक ही रजाई में सोना,
उनका आपस में प्यार नही ,
उनकी मजबूरी थी |
क्योकि लड़कियों को हाथ पाँव पसारकर ,
सोने की अनुमति नही थी |
उनके उस घर (जो उनका कभी नही था )में ,
उनके दादा दादी ,पिताजी, चाचा,भाई सबका
बिस्तर पलंग प्रथक होता
सिर्फ़ थकी मांदी माँ और बेटियों का बिस्तर
साँझा होता था |
बिस्तर ही क्यो ?
उनके कपडे भी सांझे होते|

उनकी योग्यता ,उनकी प्रतिभा को
सदेव झिड्किया मिलती |
किनतु उन लड़कियों
ने अपने पूरे परिवार के लिए न जाने
कितने ही व्रत उपवास रखे
उनकी खुशहाली की कामना की |
क्योकि
वे उस परिवार की बेटिया थी.....

6 comments:

  1. उनके उस घर (जो उनका कभी नही था )में ,
    उनके दादा दादी ,पिताजी, चाचा,भाई सबका
    बिस्तर पलंग प्रथक होता
    सिर्फ़ थकी मांदी माँ और बेटियों का बिस्तर
    साँझा होता था |
    ...क्या बेटी के रूप में जन्म लेना बेटियों का अपराध था...या बेटियों को जन्म देना उनकी माँ का अपराध था?...यह कविता मन को झकझोर कर रख देती है!...बहुत सार्थक रचना शोभना जी!

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  2. बेटियां घर की शान होती हैं..वे हर मुश्किल का सामना करती हुई अपनी मंजिल तलाश ही लेती हैं..

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  3. संवेदनाओं को उभारती कविता..

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  4. @मुकेशजी
    हाँ बहुत से मध्यम परिवारों में ऐसा ही होता था और मै अपनी रचनाओं कल्पना का प्रयोग कम ही कर पाती हूँ ।

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