माँ है,बहन है,अर्द्धांगिनी है
फिर भी ..........प्रश्न क्यूँ है
हत्या क्यूँ है
हादसे क्यूँ हैं !!!
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क्या समझा है जमाना उसे
किसी ने समझा भोग्या उसे
किसी ने जरुरत की वस्तु मात्र
जरूरतों की भेंट चढ़ते प्रतिपल
सीने में दबे उसके हरेक जज़्बात
तलाशती निगाहें उसकी हर बार
होती लहुलुहान टकराके लगातार
कंक्रीट सी प्रथाओ व् कुरितियो से
और जख्म उसकी रूह के रिसते
नासूर बन पीड़ा उसकी कराहती
कर पीड़ा को उसकी अनदेखा
हर कोई कुचलने को आतुर घाव
लेकिन इतने पर भी कहाँ घबराई
फिर संभल कर हरी दूब सी
अचल सबल खड़ी वो नज़र आई
खुद हौसले का मरहम लगा उसने
सहजे घाव रूह के और ओज से भरी
फिर वो मुस्काती चल पड़ी लड़ने
ज़माने की बेवफाई ओ रुसवाइयों से
अभी बुझी नहीं उसके मन की आस
आज भी है उसे संपूर्णता की तलाश
जो क्षत विक्षत रूह को सहला उसकी
सार्थक करे जीवन के सकल प्रयास ...............
aaj bhi use purntaa ki hai talash ...achchhi rachna
ReplyDeleteरश्मि जी ह्रदय से आभार मेरे प्रयास को सही दिशा देने के लिए ...........शुभं
ReplyDeleteसार्थकता लिये सटीक लेखन ....
ReplyDeleteफिर संभल कर हरी दूब सी
ReplyDeleteअचल सबल खड़ी वो नज़र आई
खुद हौसले का मरहम लगा उसने
सहजे घाव रूह के और ओज से भरी
फिर वो मुस्काती चल पड़ी लड़ने
नारी शक्ति को नमन करती इन सुंदर कालजयी पंक्तियों के लिए बहुत बहुत बधाई और आभार!
गहन व प्रबल भाव ...
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ReplyDeleteक्या कभी सोच बदलेगा ? समाप्त होगी क्या कभी पूर्णता की खोज ?
Latest postअनुभूति : चाल ,चलन, चरित्र (दूसरा भाग )
हर कोई कुचलने को आतुर घाव
ReplyDeleteलेकिन इतने पर भी कहाँ घबराई
फिर संभल कर हरी दूब सी
अचल सबल खड़ी वो नज़र आई
इसी हौसले को कायम रखना है. सोच में परिवर्तन अवश्यम्भावी है.
सार्थक लेखन के लिए बधाई किरण जी.
yatharth ki avibyakti
ReplyDeletebhawpoorn.....
ReplyDeleteहरी दूब सी अचल..सबल..यही है नारी.;बहुत खूब
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