इस कहानी में एक बच्चे का भय,दर्द सबकुछ है 
क्या ज़रूरी है कि हर बच्चा एक जैसा हो 
'तारे ज़मीं पर' अभिवावक,शिक्षक के लिए एक बेहतरीन फिल्म थी 
फिल्म देखा - समीक्षा की - भूल गए !
एक विद्यार्थी की चाहत से कोई मतलब नहीं?
डांटने से पहले सोचिये - आप उस उम्र में क्या हर तरह से उत्तीर्ण थे !!!

 रश्मि प्रभा 
==================================================================


'तारे जमीन पर' तो सभी ने देखी होगी | कैसे आर्ट टीचर निकुम्भ नन्हे ईशान की मदद करता है | फिल्म का एक आफ्टर-इफेक्ट भी था , हर बच्चा फिल्म देखने के बाद ईशान के भीतर खुद को देख रहा था | उसे ईशान का दर्द अपना दर्द लग रहा था , ईशान की तकलीफ अपनी तकलीफ | हर किसी को अपनी जिंदगी में निकुम्भ का इन्तेजार था | मुझे भी | बदकिस्मती से ये इन्तेजार आज भी वैसा ही जारी है |

"सॉरी सर , लेकिन मुझे ये सब्जेक्ट ज़रा भी समझ नहीं आता |", बहुत डरते हुए मैंने कहा |

कहीं न कहीं मुझे एक उम्मीद थी की शायद वो मेरी कुछ मदद कर सकें , आखिरकार वो मेरे प्रोफ़ेसर थे | पढ़ाई से रिलेटेड मेरी कोई भी तकलीफ वो नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा | इसीलिए उन्हें बताना भी जरूरी था | लेकिन शायद उनकी नजर में सिर्फ टॉपर ही इंसान होते हैं |

मेरी बात सुनकर पहले तो थोडा चौंके | शायद उनके कानों को इस जवाब की उम्मीद भी नहीं थी | एक बार ऊपर से नीचे तक मुझे हिकारत भरी नजरों से देखा और फटकारते हुए बोले-

"अगर समझ नहीं आता तो ये ब्रांच ही क्यों चूज की ?"

"सर , अपनी मर्जी से नहीं चुनी | काउंसलिंग से मिली है | अगर ये ब्रांच न लेता तो एन.आई.टी. न मिल पाता |", मैं अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए बोला |

उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया , या शायद उन्हें कोई वाजिब जवाब सूझा ही नहीं | एक बार फिर उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा -

"रोल नंबर क्या है तुम्हारा ?"

"सर, ५६ ."

अगर प्रोफ़ेसर ने आपसे आपका रोल नंबर पूछ लिया तो पूरी उम्मीद है की आप खतरे में हो |

दिन गुजरे , परीक्षा हुई , नतीजे आये | मैं उस सब्जेक्ट में फेल था | जैसे ही मुझे खबर मिली , मैं वापस उन्हीं प्रोफ़ेसर के पास गया | अभी दरवाजे पर पहुँच ही पाया था की भीतर से आवाज सुनाई दी | दो लोग आपस में बात कर रहे थे | 

"रोल नंबर ५६ का क्या हुआ ?"

"होना क्या था , फेल है | बोल रहा था मुझे आपके सब्जेक्ट में इंटरेस्ट नहीं है |"

मैं दरवाजे से ही वापस आ गया |

ऐसा नहीं है कि वो सब्जेक्ट सिर्फ मुझे समझ नहीं आता था , आधी से ज्यादा क्लास परेशान थी | लेकिन सच बोलने की गलती सिर्फ मैंने की |

मुझे फेल होने का दुःख नहीं था , दुःख सिर्फ इस बात का था कि मैं पास होना चाहता था लेकिन मुझे मदद नहीं मिली |

कुछ दिन और गुजरे | एक रोज, रात को कोई लोहे की कील चप्पल फाड़कर मेरे पैरों में घुस गयी | सुबह-सुबह दौडकर अस्पताल गया | वहाँ नर्स ने देखते ही सबसे पहले मुझे टिटनेस का इंजेक्शन दिया , मेरी ड्रेसिंग की , मुझे दवाइयां दी और बोली कि मुझे तभी आ जाना चाहिए था , जब मुझे ये तकलीफ हुई थी |

मैं सिर्फ मुस्कुरा दिया , कुछ नहीं बोला लेकिन वापस लौटते समय पूरे रास्ते यही सोचता आ रहा था कि क्या हो अगर मरीज डॉक्टर को अपनी बीमारी बताए और डॉक्टर झुंझलाकर उसे कम करने के बजाय और बढाने वाली दवाई दे दे |

"डॉक्टर साब , मुझे जुकाम हुआ है |"

"बदतमीज , तेरी इतनी हिम्मत , डॉक्टर से जुबान लडाता है | तुझे जुकाम हो कैसे सकता है | नालायक , तेरी एक ही सजा है , ये ले इंजेक्शन | अब तुझे कैंसर होगा | तब तुझे पता चलेगा कि एक डॉक्टर को अपनी बीमारी बताने का क्या अंजाम होता है |"

अध्यापक भी तो विद्यार्थियों के लिए डॉक्टर ही होता है ?? है न ?

मुझे आज भी 'निकुम्भ' का इन्तेजार है |

[DSC00247.JPG]


आकाश मिश्रा 

5 comments:

  1. सच है! ये कहानी बहुत से विद्यार्थियों की कहानी हो सकती है...! एक अध्यापक चाहे तो वो बच्चों की किसी विषय में रूचि बढ़ा सकते हैं... उन्हें आसान तरीक़े से समझाकर...
    ~सादर!!!

    ReplyDelete
  2. सच कहने वाले तो तभी बढ़ेंगे जब सच समझने वाले मिलेंगे।

    ReplyDelete
  3. बहुत बहुत आभार

    सादर

    ReplyDelete

 
Top