अनूप भार्गव
ज़िन्दगी इक खुली किताब यारो, पुण्य हैं कम पाप बेहिसाब यारो

6/21/2005

Asking for a Date

मैं और तुम
व्रत्त की परिधि के
अलग अलग कोनों में
बैठे दो बिन्दु हैं,

मैनें तो
अपनें हिस्से का
अर्धव्यास पूरा कर लिया,
क्या तुम
मुझसे मिलनें के लिये 
केन्द्र पर आओगी ?


12/17/2005
आशंका

मैं हर रोज़
बचपन से पले विश्वासों को
क्षण भर में
काँच के गिलास की तरह
टूट कर बिखरते देखता हूँ ।

सुना है जीने के लिये
कुछ मूल्यों और विश्वासों
का होना ज़रूरी है,
इसलिये मैं
एक बार फ़िर से लग जाता हूँ
नये मूल्यों और विश्वासों
को जन्म देनें में
ये जानते हुए भी
कि इन्हें कल फ़िर टूटना है ।

ये सब तब तक तो ठीक है
जब तक मेरा स्वयं
अपनें आप में विश्वास कायम है,
लेकिन डरता हूँ
उस दिन की कल्पना मात्र से
जब टूटते मूल्यों और विश्वासों
की श्रंखला में
एक दिन
मैं अपनें आप में
विश्वास खो बैठूँगा ।
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1 comments:

  1. बेहतरीन प्रस्‍तुति ... आभार

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