(भिखारी ठाकुर की १२५ जयंती पर एक कविता (20th December 2012)

कुछ सालों से खोजता फिरता हूँ
भिखारी आपको
लोक कला के नाम पर तमाशा दिखाते,
नाट्य मंडलियों में,
विदेशिया और न जाने कौन कौन-सी शैली की,
दुहाई देते फिरने वालों के यहाँ,  
आरा छपरा सीवान पटना में
भोजपुरी भाषा को मान्यता दिलाने खातिर
गाहे-बजाहे रोड जाम करने वाले दलों में,
पिछले महीने में गया था मैं खोजने आपको
कुछ प्रसिद्ध रंगकर्मियों और नाट्य विद्वजनों के यहाँ
पता चला वो तो विदेश में आपको ढूँढने गए हैं
जो मिल भी गए वो चंद रटे रटाये बोल बोलते हैं
“भोजपुरी का शेक्सपियर” “भरतमुनि की विरासत”
आपके नाम पर आजकल चंदा भी काटते हैं कुछ लोग,
बड़का-बड़का भाखन कराने के खातिर
कि भिखारी ठाकुर की प्रासंगिकता क्या है ?
गांव के रसिक पुरनिया बताते हुए मुस्काते हैं
“भिखारिया बड़ा सुघर नचनिया था
स्टेज हिला देता था
बाकि दामे बहुत टाईट लेता था”   
बड़ा निराश हूँ आज मैं ,
यह जानकर कि आज,
एक सौ पच्चीस बरस हो गए,
आपको इस धरती पर आए,
और किसी को आपकी सुध नहीं है,
थोड़ी चर्चा जरूर है इधर उधर,
लेकिन इससे हम गंवई और अदने को क्या,
थोड़ी मशक्कत जरूर कर रहा हूँ,
आपको जानने और समझने की,
आपकी सोच को आम जनों और
पलायन कर रहे अपने गांव वालों तक
पहुँचाने के लिए
जहाँ सब नवही लइकन को अब यही मालूम है,
“बिदेसिया त निरहुआ है”. 
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नवनीत नीरव

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