सार........
वह मुझमें ही
पा लेना चाहती थी
आदि से अन्त तक
एक अनादि सृष्टि
मैंने बो दिया है
उसकी उर्वर भूमि में
सारा अपनापन
ताकि मैं भी, पैदा हो सकूँ
फल-फूल सकूँ;
और आज मैं
एक और अपने रूप में
देखो, बढ़ने लगा हूँ
एहसास.......
जब तुमने मुझे
पहली बार छुआ था
मैं अपने में ही, हो गयी थी
और सुन्दर
मेरे वक्ष पर,
तैरने से पहले
तुम्हारी आवाज के फूल
पक्षियों की उड़ानों में
सूखे मौसम की
हर चिन्ता को हर रही थी
शब्दों के साथ-साथ
जन्मने लगे हैं अब
खुशबू, धूप, बादल, प्यार
और मैं
अपने में ही
महसूस करने लगी हूँ
आदिम
गन्ध.......
सच.............
मैं अक्सर तुम्हारे बारे में
सोचता हूंँ.........
तुम ठीक वैसी होंगी
कोमल नूरजहाँ सी
पथरायी ताजमहल
और, कई बार तुम
ऐसी भी होती हो
जब तुम्हारे साये में
मैं होता हूँ
ठीक बचपन सा
तुम्हारी नम उदास आखों में
मैं बहुत कम होता हूँ
तुम्हारे पास
जब तुम हँस रही होती हो
झूंठी हँसी
शाश्वत.........
ओ मेरे नाविक!
मैं कैसे भूल जाऊँ
कुछ दिनों पहले मैं
नदी थी
तुम्हारे हाव-भाव
कितने थे किशोर, और
मैं चंचल थी
क्योंकि मैं शाश्वत बहती आयी थी
आज भी मैं, कैद नहीं हूँ
कि, तुम न छू सको
मेरी अपलक नेह
रह-रह कर पीर उठती रही है
क्योंकि मैं भी,
तुम्हारे साथ-साथ बही हूँ

ताकि, खोया कल मिल सके
() डॉ. करमानन्द आर्य
सहायक प्रोफेसर
भारतीय भाषा केंद्र -हिन्दी
विदेशी एवं भारतीय भाषा विद्यालय
बिहार केंद्रीय विश्व विद्यालय
कैंप कार्यालय : बी आई टी कैंपस, पटना
Fax: +91-612-2226535
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